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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - त्रिषन्धिः छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुब्गर्भातिजगती सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    113

    ई॒शां वो॑ वेद॒ राज्यं॒ त्रिष॑न्धे अरु॒णैः के॒तुभिः॑ स॒ह। ये अ॒न्तरि॑क्षे॒ ये दि॒वि पृ॑थि॒व्यां ये च॑ मान॒वाः। त्रिष॑न्धे॒स्ते चेत॑सि दु॒र्णामा॑न॒ उपा॑सताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ई॒शाम् । व॒: । वे॒द॒ । राज्य॑म् । त्रिऽसं॑धे । अ॒रु॒णै: । के॒तुऽभि॑: । स॒ह । ये । अ॒न्तरि॑क्षे । ये । दि॒वि । पृ॒थि॒व्याम् । ये । च॒ । मा॒न॒वा: । त्रिऽसं॑धे: । ते । चेत॑सि । दु॒:ऽनामा॑न: । उप॑ । आ॒स॒ता॒म् ॥१२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ईशां वो वेद राज्यं त्रिषन्धे अरुणैः केतुभिः सह। ये अन्तरिक्षे ये दिवि पृथिव्यां ये च मानवाः। त्रिषन्धेस्ते चेतसि दुर्णामान उपासताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ईशाम् । व: । वेद । राज्यम् । त्रिऽसंधे । अरुणै: । केतुऽभि: । सह । ये । अन्तरिक्षे । ये । दिवि । पृथिव्याम् । ये । च । मानवा: । त्रिऽसंधे: । ते । चेतसि । दु:ऽनामान: । उप । आसताम् ॥१२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (त्रिषन्धे) हे त्रिसन्धि ! [तीनों कर्म, उपासना और ज्ञान में मेल रखनेवाले, सेनापति] (वः) तुम्हारी (ईशाम्) शासन शक्ति और (राज्यम्) राज्य [राज के विस्तार] को [तुम्हारे] (अरुणैः) रक्त वर्ण [डरावने रूप] वाले (केतुभिः सह) झण्डों के साथ (वेद) मैं [प्रजाजन] जानता हूँ। (ये) जो (मानवाः) ज्ञानियों के बताये हुए (दुर्णामानः) दुर्नामा [दुष्ट नामवाले दोष] (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में (ये) जो (दिवि) सूर्य में (च) और (ये) जो (पृथिव्याम्) पृथिवी पर हैं, (ते) वे [सब दोष] (त्रिषन्धेः) [त्रिसन्धि] [त्रयीकुशल विद्वान्] के (चेतसि) चित्त में (उप) हीन होकर (आसताम्) रहें ॥२॥

    भावार्थ

    (वः) तुम्हारी−आदरार्थ बहुवचन है। प्रजागण त्रिसन्धि अर्थात् अपने कर्तव्य, ईश्वरभक्ति और यथार्थ ज्ञान में प्रीतिवाले राजा का आदर-सत्कार करें। वह दूरदर्शी पुरुष आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक विपत्तियों से आप बचे और सबको बचावे ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(ईशाम्) ईश ऐश्वर्ये-क, टाप्। शासनशक्तिम् (वः) आदरार्थं बहुवचनम्। युष्माकम् (वेद) अहं प्रजाजनो जानामि (राज्यम्) राज्यविस्तारम् (त्रिषन्धे) अ० ११।९।२३। त्रिषु कर्मोपासनाज्ञानेषु प्रीतिर्यस्य स त्रिषन्धिः हे त्रयीकुशल सेनापते (अरुणैः) रक्तवर्णैः। भयावहैरित्यर्थः (केतुभिः) ध्वजैः (सह) (ये) (अन्तरिक्षे) मध्यलोके (ये) (दिवि) सूर्ये (ये) (च) (मानवाः) तेन प्रोक्तम्। पा० ४।३।१०१। मनु-अण्। मनुभिर्ज्ञानिभिः प्रोक्ताः (त्रिषन्धेः) विदुषः पुरुषस्य (ते) पूर्वोक्ताः (चेतसि) अन्तःकरणे। ज्ञाने (दुर्णामानः) अ० ८।६।१। अतिक्रूरदोषाः (उप) उपोऽधिके च। पा० १।४।८७। इति हीनार्थे (आसताम्) तिष्ठन्तु ॥

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    विषय

    सुव्यवस्थित राष्ट्र

    पदार्थ

    १. (व:) = तुम्हारा (राज्यम्) = राज्य (ईशां वेद) = शासनशक्ति को जानता है, अर्थात् राष्ट्र में सर्वत्र शासन की सुव्यवस्था है। हे (त्रिषन्धे) = जल, स्थल व वायु-सेना के साथ समर्थ राजन्! (अरुणै: केतुभिः सह) = विजय की सूचक अरुण वर्णवाली पताकाओं के साथ रहनेवाला जो तू है, उससे (त्रिषन्धः) = तुम त्रिषन्धि के (चेतसि) = चित्त में वे सब (दुर्गामान:) = [दुर् नम्] दुष्टता को झुकानेवालेराष्ट्र से दुष्टता को दूर करनेवाले (मानवा:) = विचारशील पुरुष (उपासताम्) = समीपता से रहनेवाले हों-(ये) = जो (दिवि) = द्युलोक में निवास करनेवाले हैं, अर्थात् जो ज्ञान में विचरण करते हुए सदा मस्तिष्करूप धुलोक में निवास करते हैं, (ये अन्तरिक्षे) = जो उपासना-प्रवृत्त लोग सदा हृदयान्तरिक्ष में निवास करते हैं, (ये च) = और जो सामान्य व्यवहार में प्रवृत्त लोग (पृथिव्याम्) = इस पृथिवी पर हैं।

    भावार्थ

    राष्ट्र में शासन सुव्यवस्थित हो। राजा की विजयसूचक पताकाएँ सदा फहराती रहें। राजा दुष्टता को दूर करनेवाले उन सब पुरुषों का ध्यान करे[ रक्षण करे] जोकि 'ज्ञान, उपासना व पार्थिव [संसारी] व्यवहार' में प्रवृत्त हैं।

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    भाषार्थ

    सम्राट् कहता है कि हे शत्रुओ ! (वः) तुम्हारी (ईशाम्) शासन-पद्धति को तथा (राज्यम्) राज्य को (वेद) त्रिषन्धि जानता है, (त्रिषन्धे) हे त्रिषन्धि१ ! (अरुणैः केतुभिः सह) लाल झण्डों के साथ [उत्तिष्ठ१] उठ। (ये अन्तरिक्षे) जो अन्तरिक्ष में, (ये दिवि) जो द्युलोक में, (च ये पृथिव्याम्) और जो पृथिवी में (दुर्णामानः मानवाः) बदनाम मनुष्य हैं (ते) वे (त्रिषन्धेः चेतसि) त्रिषन्धि के चित्त में (उपासताम्) स्थित रहें, अर्थात् त्रिषन्धि के मन में रहें।

    टिप्पणी

    [लाल झण्डे खून की निशानी हैं, जिन द्वारा यह दर्शाया है कि खूनी युद्ध होने वाला है। अन्तरिक्ष में मानव, वायुयानों वाले सेनिक हैं। पृथिवी के मानव तो प्रसिद्ध ही हैं। वेद की दृष्टि में द्युलोक में भी मानव सदृश सृष्टि है। महर्षि दयानन्द की दृष्टि में "ये सब भूगोल, लोक और इन में मनुष्यादि प्रजा भी रहती हैं। जब पृथिवी के समान सूर्य चन्द्र और नक्षत्र वसु हैं, पश्चात् उन में इसी प्रकार प्रजा के होने में क्या सन्देह। असंख्य लोकों में मनुष्यादि सृष्टि नहीं, तो क्या...... परमेश्वर का काम सफल कभी हो सकता है। इसलिये सर्वत्र मनुष्यादि सृष्टि है। जिस जाति की जैसी सृष्टि इस देश में है वैसी जाति ही की सृष्टि अन्य लोकों में भी है" (सत्यार्थ प्रकाश, अष्टम समुल्लास, पृ० ३६० सन्दर्भ ५-२० रामलाल कपूर ट्रस्ट)। तथा महर्षि ने यह भी माना है कि जैसे वेदों का इस लोक में प्रकाश है उन्हीं का उन लोकों में भी प्रकाश है"। इस लोक से यह सूचित होता है कि लोक लोकान्तरों में भी अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के मनुष्य हैं; तभी तो वेदों की सत्ता लोकों में प्रयोजनवती हो सकती है। इन दूरवर्ती दुर्णाम-प्रजाओं के साथ, मानव सैनिकों द्वारा युद्ध सम्भव है,- यह विचारणीय हैं। अथवा वर्तमान काल में हम देखते है कि अमरीका और एशिया द्वारा ऐसे Rockets तथा missiles आकाश में छोड़े गए हैं जो कि सूर्य को भी पार कर आगे-आगे बढ़ते जा रहे हैं। यद्यपि इन में मनुष्य नहीं, तो भी कभी ऐसा समय आ सकता है जब कि इन Rockets में मनुष्यों को भी इतनी दूरी तक भेजा जा सके। चान्द तक तो इन वायुयानों में मनुष्य पहुंच ही चुके हैं, जिन का पहुंचना असम्भव समझा जाता था। और समाचार पत्रों द्वारा यह भी ज्ञात हुआ है कि चान्द में जमीन खरीदने तक की चर्चा भी हुई है। महर्षि दयानन्द की दृष्टि में जब इन लोक लोकन्तरों में भी मानुष-सृष्टि है तो इन में रहने वाले दुर्णाम-प्रजा के साथ युद्ध की सम्भावना भी किसी समय वास्तविक हो सकता है। वेद तो वर्तमान, 'भूत तथा भविष्यत् की घटनाओं का भी वर्णन करते हैं।] [१. मन्त्र ११/९/२३ से अर्बुदि और त्रिषन्धि का वर्णन हुआ है जो कि ११/१०/१-२७ के मन्त्रों में स्थान-स्थान पर भी वर्णित है। ११।९।२३ से पूर्व के मन्त्रों में अर्बुदि और न्यर्बुदि का ही वर्णन हुआ है, त्रिषन्धि का नहीं।]

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    विषय

    शत्रुसेना का विजय।

    भावार्थ

    हे (त्रिसन्धे) त्रिसन्धि नामक सेनापते ! (अरुणैः केतुभिः सह) लाल लाल झण्डों सहित (इशां) ऐश्वर्य सम्पन्न, शक्तिशाली (वः) तुम लोगों के (राज्यम्*) राज्य को, सामर्थ्य को (वेद) मैं जानता हूं। (अन्तरिक्षे दिवि पृथिव्यां च) अन्तरिक्ष, द्यौलोक और पृथिवी में भी (ये (मानवाः) जो मानव लोग हैं और (दुर्नामानः) जो दुष्टनाम वाले, दुष्टस्वभाव वाले पुरुष हैं, वे सब (ते त्रिसन्धेः) तुझ ‘त्रिसन्धि’ नामक महास्त्रधारी पुरुष के (चेतसि) चित्त या इच्छा में (उपासताम्) रहें। तेरे अनुकूल चलें।

    टिप्पणी

    * ‘वेद। राज्यम्’। इति पदपाठः शं० पा०॥ ‘वेद-राज्यं’ इति एकपदं च क्वचित्। ‘वेद, राज्यम्’ इति सायणः। (पं०) ‘त्रिसंवेत्वे’ त्रिसंधेस्ये, ‘त्रिसंधेस्त्वे’ इत्यादि नानापाठाः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृग्वङ्गिरा ऋषिः। मन्त्रोक्तस्त्रिषन्धिर्देवता। १ विराट् पथ्याबृहती, २ त्र्यवसाना षट्पा त्रिष्टुब्गर्भाति जगती, ३ विराड् आस्तार पंक्तिः, ४ विराट् त्रिष्टुप् पुरो विराट पुरस्ताज्ज्योतिस्त्रिष्टुप्, १२ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः, १३ षट्पदा जगती, १६ त्र्यवसाना षट्पदा ककुम्मती अनुष्टुप् त्रिष्टुब् गर्भा शक्वरी, १७ पथ्यापंक्तिः, २१ त्रिपदा गायत्री, २२ विराट् पुरस्ताद बृहती, २५ ककुप्, २६ प्रस्तारपंक्तिः, ६-११, १४, १५, १८-२०, २३, २४, २७ अनुष्टुभः। सप्तविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (त्रिषन्धे) हे त्रिषन्धि अस्त्र-गन्धक मनः शिल स्फोटक पदार्थ मिश्रित अस्त्र या उनके प्रयोक्ता सैनिक ! तू (अरुणै:-केतुभिः सह) लाल रंग वाले ज्वलनध्वजाओं-प्रहारों के साथ (च:) उन शत्रुओं के "पुरुष व्यत्ययः” (राज्यम्) राज्य का (ईशां वेद) स्वामी हो जा 'छन्दसो विदेरनुप्रयोगः' (ये अन्तरिक्षे) जो अन्तरिक्ष में (ये दिवि) जो द्युलोक में (ये पृथिव्याम्) जो पृथिवी में अरुण केतु-ज्वलन ध्वजाएं हैं वे (मानवा:) 'मानवानामेते तद्धितप्रत्ययस्य लुक' शत्रुओं के प्रहारक होकर (त्रिषन्धेः) हे त्रिषन्धि ! उसके प्रयोक्ता 'सुलुगभावश्च छान्दसः' (ते चेतसि) तेरे संज्ञान-संकेत में प्रेरणा में रहकर (दुमान:उपासताम्) दुर्गाम दुष्प्रवृति वाले शत्रुओं की 'द्वितीयार्थे प्रथमा' सेवन करे- प्राप्त हो ॥२॥

    विशेष

    ऋषिः-भृग्वङ्गिराः (भर्जनशील अग्निप्रयोगवेत्ता) देवता – त्रिषन्धिः ( गन्धक, मनः शिल, स्फोट पदार्थों का अस्त्र )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    War, Victory and Peace

    Meaning

    I know your rule and order, O Trishandhi, along with your scarlet banners. Whatever forces there are in the middle region, in the region of light, and on the earth, whatever people, and whatever evil and notorious elements there be, O Trishandhi, let all these be in your mind and on record.

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    Translation

    Your mastery I know, (your) kingdom, O Trisandhi, together with red ensigns; what in the atmosphere, what in the, sky, and what men (manava) (are) on the earth, let those illnamed ones sit (? upa-as) in the mind (ceta) of Trisandhi.

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    Translation

    O commanding chief! You are the holder of that lethal weapon which has three edge, three effect and effectual against enemies on earth, atmosphere and heaven. I, the priest know the paramountsy of kingdom together with your red flags. The people who are on earth, who are in air and who are in heavenly region and those who are the men of bad repute accept your will and power; O Trisandhi.

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    Translation

    O general, devoted to duty, devotion and knowledge, I acknowledge thy power and sway with ruddy flags. May all men in air, heaven and on earth, and all evil-minded persons remain under thy control O general!

    Footnote

    Remain under: Work according to thy will. I: one of the subjects. The colour of the flag should be red, to strike terror in the heart of the foe.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(ईशाम्) ईश ऐश्वर्ये-क, टाप्। शासनशक्तिम् (वः) आदरार्थं बहुवचनम्। युष्माकम् (वेद) अहं प्रजाजनो जानामि (राज्यम्) राज्यविस्तारम् (त्रिषन्धे) अ० ११।९।२३। त्रिषु कर्मोपासनाज्ञानेषु प्रीतिर्यस्य स त्रिषन्धिः हे त्रयीकुशल सेनापते (अरुणैः) रक्तवर्णैः। भयावहैरित्यर्थः (केतुभिः) ध्वजैः (सह) (ये) (अन्तरिक्षे) मध्यलोके (ये) (दिवि) सूर्ये (ये) (च) (मानवाः) तेन प्रोक्तम्। पा० ४।३।१०१। मनु-अण्। मनुभिर्ज्ञानिभिः प्रोक्ताः (त्रिषन्धेः) विदुषः पुरुषस्य (ते) पूर्वोक्ताः (चेतसि) अन्तःकरणे। ज्ञाने (दुर्णामानः) अ० ८।६।१। अतिक्रूरदोषाः (उप) उपोऽधिके च। पा० १।४।८७। इति हीनार्थे (आसताम्) तिष्ठन्तु ॥

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