अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 13
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - त्रिषन्धिः
छन्दः - षट्पदा जगती
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
43
बृह॒स्पति॑राङ्गिर॒सो वज्रं॒ यमसि॑ञ्चतासुर॒क्षय॑णं व॒धम्। तेना॒हम॒मूं सेनां॒ नि लि॑म्पामि बृहस्पते॒ऽमित्रा॑न्ह॒न्म्योज॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठबृह॒स्पति॑: । आ॒ङ्गि॒र॒स: । वज्र॑म् । यम् । असि॑ञ्चत । अ॒सु॒र॒ऽक्षय॑णम् । व॒धम् । तेन॑ । अ॒हम् । अ॒मूम् । सेना॑म् । नि । लि॒म्पा॒मि॒ । बृ॒ह॒स्प॒ते॒ । अ॒मित्रा॑न् । ह॒न्मि॒ । ओज॑सा ॥१२.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
बृहस्पतिराङ्गिरसो वज्रं यमसिञ्चतासुरक्षयणं वधम्। तेनाहममूं सेनां नि लिम्पामि बृहस्पतेऽमित्रान्हन्म्योजसा ॥
स्वर रहित पद पाठबृहस्पति: । आङ्गिरस: । वज्रम् । यम् । असिञ्चत । असुरऽक्षयणम् । वधम् । तेन । अहम् । अमूम् । सेनाम् । नि । लिम्पामि । बृहस्पते । अमित्रान् । हन्मि । ओजसा ॥१२.१३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(आङ्गिरसः) विद्वानों के शिष्य (बृहस्पतिः) [बड़े-बड़ों के रक्षक राजा] ने (यम्) जिस (असुरक्षयणम्) असुरनाशक (वधम्) शस्त्र (वज्रम्) वज्ररूप [सेनापति] को (असिञ्चत) सींचा है [बढ़ाया है]। (तेन) उसी [सेनापति] के साथ, (बृहस्पते) हे बृहस्पति ! [बड़े-बड़ों के रक्षक राजन्] (अहम्) मैं [वीर पुरुष] (ओजसा) पराक्रम से (अमूम् सेनाम्) उस सेना पर (नि लिम्पामि) पोता फेरता हूँ और (अमित्रान्) वैरियों को (हन्मि) मारता हूँ ॥१३॥
भावार्थ
जैसे माली जल सींच कर वृक्षों को बढ़ाता है, वैसे ही धर्मज्ञ राजा वीरों को बढ़ावे और शत्रुओं का नाश करे ॥१३॥
टिप्पणी
१३−(पूर्वार्द्धर्चो व्याख्यातः-म० १२ (तेन) सेनापतिना (अहम्) वीरपुरुषः (अमूम्) (सेनाम्) (नि) नितराम् (लिम्पामि) लिप उपदेहे, मुचादित्वाद् मुम्। कृतलेपां करोमि। वि... (बृहस्पते) हे बृहतां रक्षक राजन् (अमित्रान्) शत्रून् (हन्मि) मारयामि (ओजसा) पराक्रमेण ॥
विषय
अमित्रान् हन्मि ओजसा
पदार्थ
१. (आङ्गिरसः बृहस्पतिः) = शक्तिशाली ज्ञानीपुरुष ने (यम्) = जिस (असुरक्षयणं वधम्) = आसुरभावों के विनाशक आयुध (वज्रं असिञ्चत:) = क्रियाशीलता को अपने जीवन में सिक्त किया, (तेन) = उसी क्रियाशीलतारूप वन के द्वारा (अहम्) = मैं (अमूं सेनाम्) = उस शत्रुसेना को (निलिम्पामि) = नितरां छिन्न करता हूँ। हे (बृहस्पते) = प्रभो ! मैं अब (ओजसा) = ओजस्विता से (अमित्रान् हन्मि) = सब शत्रुओं को विनष्ट कर देता हूँ।
भावार्थ
क्रियाशीलता रूप वन से आसुरभावों का विनाश करते हुए हम शत्रुसैन्य को छिन्न कर डालें।
भाषार्थ
बृहस्पति आङ्गिरस ने जिस असुरों के क्षय करने वाले तथा वध करने वाले वज्र को सींचा है (मन्त्र १२ का उत्तरार्ध) (तेन) उस वज्र द्वारा (अहम्) मैं अर्बुदि, (अमूं सेनाम्) उस सेना को (निलिम्पामि) नितरां अर्थात् पूर्णतया लीपता हूँ, और (बृहस्पतेः अमित्रान्) बृहस्पति अर्थात् त्रिषन्धि के शत्रुओं को (ओजसा) पराक्रम द्वारा (हन्मि) मार डालता हूँ।
टिप्पणी
[आहुत्या = योद्धाओं के निज शरीरों की आहुति। वज्रम् असिञ्चत= यह वज्र द्रवरूप प्रतीत होता है "असिञ्चत" के प्रयोग द्वारा। सींचना द्रव द्वारा सम्भव है, ठोस वस्तु द्वारा नहीं। यह रसायनिक-द्रव या जल सम्भव है। बृहस्पति द्वारा आज्ञापित अर्बुदि ने प्रथम द्रव का प्रयोग किया, तदनन्तर या तो इस द्रवरूपी ओज द्वारा, या सींचने के पश्चात् निज पराक्रम रूपी ओज द्वारा उस ने शत्रुओं का वध किया। असुर= प्राण पोषण तत्पर और धनलोभी शत्रुगण। द्रव का सींचना किसी मशीन द्वारा ही सम्भव है। संस्कृत साहित्य में "वारुणास्त्र" का भी वर्णन हुआ है, जिस द्वारा जल सींचा जाता है। द्रव-आयुध सम्भवतः जल की वर्षा करता हो]।
विषय
शत्रुसेना का विजय।
भावार्थ
(आङ्गिरसः बृहस्पतिः) अङ्गिरस वेद का विद्वान् (यम्) जिस (असुरक्षयणं वधं वज्रम् असिञ्चत) असुरों के नाशकारी हथियार के रूप में वज्र, महाविद्युत् को बनाता है (तेन) उससे (अहम्) मैं (अमूम्) उस दूर देश में स्थित (सेनाम्) सेना को भी (नि लिम्पामि) विनाश करूं। हे (बृहस्पते) वेदज्ञ विद्वान् ! मैं उसके (ओजसा) तेज और पराक्रम से (अमित्रान्) शत्रुओं को (हन्मि) विनाश करूं।
टिप्पणी
‘अमूः सेनाम्’ इति सायणाभिमतः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृग्वङ्गिरा ऋषिः। मन्त्रोक्तस्त्रिषन्धिर्देवता। १ विराट् पथ्याबृहती, २ त्र्यवसाना षट्पा त्रिष्टुब्गर्भाति जगती, ३ विराड् आस्तार पंक्तिः, ४ विराट् त्रिष्टुप् पुरो विराट पुरस्ताज्ज्योतिस्त्रिष्टुप्, १२ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः, १३ षट्पदा जगती, १६ त्र्यवसाना षट्पदा ककुम्मती अनुष्टुप् त्रिष्टुब् गर्भा शक्वरी, १७ पथ्यापंक्तिः, २१ त्रिपदा गायत्री, २२ विराट् पुरस्ताद बृहती, २५ ककुप्, २६ प्रस्तारपंक्तिः, ६-११, १४, १५, १८-२०, २३, २४, २७ अनुष्टुभः। सप्तविंशत्यृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(आङ्गिरसः-बृहस्पतिः) अग्निविद्या वेत्ता विद्रान् जन (असुरक्षयणं यं वधं वज्रम्) असुरों का क्षय करने वाले जिस वधक त्रिषन्धि वज्रास्त्र को (असिञ्चत) भिराता है सो (बृहस्पते) हे बृहस्पति ! (तेन) उस तेरे वज्र से (अमू' सेनां निलिम्पामि) उस पर सेना की मलिया मेट करता हूं (ओजसा अमित्रान् हन्मि) सैन्य बल से शत्रुनों को मारता हूं ॥१३॥
विशेष
ऋषिः-भृग्वङ्गिराः (भर्जनशील अग्निप्रयोगवेत्ता) देवता – त्रिषन्धिः ( गन्धक, मनः शिल, स्फोट पदार्थों का अस्त्र )
इंग्लिश (4)
Subject
War, Victory and Peace
Meaning
That thunderbolt of triple harmony of Dharmic knowledge, action and prayer in dedication, destroyer of demonic evil, which Brhaspati and Angirasas wielded, served and promoted, the same triple armour, O Brhaspati, I wear, with the same thunderbolt I rout the force of unrighteousness, and with the same strength and splendour I destroy the enemies of life.
Translation
The thounderbolt which Brhaspati of the Añgiras race poured, an Asura-destroying weapon -- therewith do I blot out (ni-lip) yon army, O Brhaspati; I slay the enemies with force.
Translation
O Master of Vedic knowledge, I, the scientist destroy this army infrunt and with might strike the foeman, by that same electric weapon which the cloud created by celestial heat creates as thunderbolt to destroy the clouds restraining water of the rain.
Translation
That fiend-destroying general whom the learned king has prepared as a weapon and a thunderbolt, with his aid, O King! I destroy that enemy, and strike the foemen down with my might.
Footnote
I: A brave man.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१३−(पूर्वार्द्धर्चो व्याख्यातः-म० १२ (तेन) सेनापतिना (अहम्) वीरपुरुषः (अमूम्) (सेनाम्) (नि) नितराम् (लिम्पामि) लिप उपदेहे, मुचादित्वाद् मुम्। कृतलेपां करोमि। वि... (बृहस्पते) हे बृहतां रक्षक राजन् (अमित्रान्) शत्रून् (हन्मि) मारयामि (ओजसा) पराक्रमेण ॥
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