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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 4
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - त्रिषन्धिः छन्दः - विराडनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    66

    अ॒न्तर्धे॑हि जातवेद॒ आदि॑त्य॒ कुण॑पं ब॒हु। त्रिष॑न्धेरि॒यं सेना॒ सुहि॑तास्तु मे॒ वशे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न्त: । धे॒हि॒ । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । आदि॑त्य । कुण॑पम् । ब॒हु । त्रिऽसं॑धे: । इ॒यम् । सेना॑ । सुऽहि॑ता । अ॒स्तु॒ । मे॒ । वशे॑ ॥१२.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्तर्धेहि जातवेद आदित्य कुणपं बहु। त्रिषन्धेरियं सेना सुहितास्तु मे वशे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अन्त: । धेहि । जातऽवेद: । आदित्य । कुणपम् । बहु । त्रिऽसंधे: । इयम् । सेना । सुऽहिता । अस्तु । मे । वशे ॥१२.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 10; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (जातवेदः) हे उत्तम ज्ञानवाले ! (आदित्य) हे आदित्य ! [अखण्ड ब्रह्मचारी] (बहु) बहुत (कुणपम्) लोथों को (अन्तः) [रणक्षेत्र के] बीच में (धेहि) रख। (मेरी) (इयम्) यह (सुहिता) अच्छे ढङ्ग से स्थापित (सेना) सेना (त्रिषन्धेः) त्रिसन्धि [म० २। विद्वान् सेनापति] के (वशे) वश में (अस्तु) होवे ॥४॥

    भावार्थ

    जिस समय प्रधान सेनापति रणभूमि में शत्रुदलन करे, अन्य वीर सैन्य पुरुष अपनी सुव्यूढ सेना से उसका सहाय करें ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(अन्तर्) रणक्षेत्रमध्ये (धेहि) धर (जातवेदः) जातानि प्रशस्तानि वेदांसि ज्ञानानि यस्य तत्संबुद्धौ (आदित्य) अ० ११।९।२५। अखण्डब्रह्मचारिन् (कुणपम्) अ० ११।९।१०। शवशरीरजातम् (बहु) बहुलम् (त्रिषन्धेः) म० २। सेनापतेः (इयम्) दृश्यमाना (सेना) (सुहिता) सुष्ठु धृता। सुव्यूढा (अस्तु) (मे) मम (वशे) प्रभुत्वे ॥

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    विषय

    सुहिता सेना

    पदार्थ

    १.हे (जातवेद) = उत्पन्न ज्ञानवाले-समझदार (आदित्य) = [आदानात, दाप् लवने] समन्तात् शत्रुओं का खण्डन करनेवाले सेनापते! तू (बहु कुणपम्) = बहुत शवों को (अन्त: धेहि) = यहाँ रणांगण में स्थापित करनेवाला हो, अर्थात् (सहनश:) = शत्रुओं को धराशायी करनेवाला बन। २. (इमम्) = यह (सुहिता) = सम्यक् धारण की गई (मे सेना) = मेरी सेना त्(रिषन्धेः) = 'जल, स्थल व वायु सेना से मेलवाले मुख्य सेनापति के (वशे अस्तु) = वश में हो।

    भावार्थ

    हमारा सेनापति समझदार, उपायकुशल [full of resources] व शत्रुओं का समन्तात् छेदन करनेवाला बने। सम्यक् धारण की गई यह सेना उसके वश में हो। विजय के लिए आवश्यक है कि हमारी सेना सुशिक्षित हो, उसका सम्यक् पालन किया जाए तथा वह पूर्णतया सेनापति के शासन में हो।

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    भाषार्थ

    (जातवेदः) हे उत्पन्न संग्राम की विद्या को जानने वाले ! (आदित्य) हे शत्रुओं का आदान करने वाले, उन्हें पकड़ने वाले अर्बुदि ! (बहु कुणपम्) शत्रुओं के बहुसंख्यक मृत शरीरों को (अन्तः) भूमि के अन्दर (धेहि) गाड़ दे। (त्रिषन्धेः इयं सेना) त्रिषन्धि की यह सेना (मे) मुझ सम्राट् के लिये (सुहिता अस्तु) उत्तम हित करने वाली हो, तथा (वशे) मेरे वश में हो।

    टिप्पणी

    [जातवेदः = जातसंग्रामस्य वेदितः! । आदित्य = "आदत्ते" इति (निरुक्त २।४।१३)। तथा अथर्व० ११।९।३ में "आदानसन्दानाभ्याम्" द्वारा शत्रु के आदान अर्थात् पकड़ने, तथा उसे बांधने का वर्णन हुआ हैं। सम्राट् त्रिषन्धि को कहता है निज सेना के साथ प्रेम से वर्ताव करना जिस से सेना मेरे वश में रहे, और मेरे लिये उत्तम हितकारिणी हो। कहीं युद्ध में बलवा या युद्धबन्दी न कर दे। सुहिता=अथवा सुपुष्टा=सु + धा (धारण पोषणयोः) + हि (दधातेर्हिः; अष्टा० ७।४।४२)]।

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    विषय

    शत्रुसेना का विजय।

    भावार्थ

    हे (जातवेदः) विद्वन् ! अग्ने ! सेनापते ! हे (आदित्य) सूर्य के समान शत्रुओं का तेज अपने भीतर लेने हारे ! तू (बहु कुणपं) बहुतसी लोथों को (अन्तः धेहि) युद्ध के भीतर गिरा। (त्रिषन्धेः) त्रिषन्धि वज्र या महास्त्र चलाने वालों की (इयं सेना) यह सेना (मे वशे) मेरे वश में (सुहिता अस्तु) उत्तम रीति से व्यवस्थित होकर रहे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृग्वङ्गिरा ऋषिः। मन्त्रोक्तस्त्रिषन्धिर्देवता। १ विराट् पथ्याबृहती, २ त्र्यवसाना षट्पा त्रिष्टुब्गर्भाति जगती, ३ विराड् आस्तार पंक्तिः, ४ विराट् त्रिष्टुप् पुरो विराट पुरस्ताज्ज्योतिस्त्रिष्टुप्, १२ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः, १३ षट्पदा जगती, १६ त्र्यवसाना षट्पदा ककुम्मती अनुष्टुप् त्रिष्टुब् गर्भा शक्वरी, १७ पथ्यापंक्तिः, २१ त्रिपदा गायत्री, २२ विराट् पुरस्ताद बृहती, २५ ककुप्, २६ प्रस्तारपंक्तिः, ६-११, १४, १५, १८-२०, २३, २४, २७ अनुष्टुभः। सप्तविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (जातवेद:) हे अग्नि (बहु कुणपम्) संग्राम में शत्रुओं के बहुत 'बहु-बहुम् सुपां सुलुक्-अमोलुक्' मृतदेह समूह को (अन्तः धेहि) अपनी ज्वालाओं में छिपाले-भस्म करदे तथा (आदित्य) हे सूर्य ! तू भी अपनी किरणों में रख शीघ्र सुखा दे- जला दे (त्रिषन्धेः) त्रिपन्धि-वज्र की या उसके प्रयोक्ता सैनिक की (इयं सेना) यह सेना (मे वशे) मेरे वश में (सुहिताः-अस्तु) सुरक्षित रहे ॥४॥

    टिप्पणी

    "दुर्गामानम्" इति ( सायणः )

    विशेष

    ऋषिः-भृग्वङ्गिराः (भर्जनशील अग्निप्रयोगवेत्ता) देवता – त्रिषन्धिः ( गन्धक, मनः शिल, स्फोट पदार्थों का अस्त्र )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    War, Victory and Peace

    Meaning

    O Jataveda, expert of the science of fire, brilliant commander, let the many corpses of the enemies be interred, and let this army of Trishandhi, well ordered and organised, be within my cotrol.

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    Translation

    O Jatavedas, Aditya, put thou between much human flesh; let this army of Trisandhi be well-placed in my control.

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    Translation

    O sun-like Commanding Chief! You are the showerer of flames in the battle. You make may corpses of the enemies fall down on the ground. Let the army equipped with lethal weapons be well-organized under the control of mine, the king.

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    Translation

    O learned, brilliant general cast down many a corpse during the battle. Let the devoted army of Trishandhi be in my control.

    Footnote

    Trishandhi: A general devoted to duty, devotion, and knowledge. My: Another Commander of the army, who with the assistance of Trishandhi wine the foe.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(अन्तर्) रणक्षेत्रमध्ये (धेहि) धर (जातवेदः) जातानि प्रशस्तानि वेदांसि ज्ञानानि यस्य तत्संबुद्धौ (आदित्य) अ० ११।९।२५। अखण्डब्रह्मचारिन् (कुणपम्) अ० ११।९।१०। शवशरीरजातम् (बहु) बहुलम् (त्रिषन्धेः) म० २। सेनापतेः (इयम्) दृश्यमाना (सेना) (सुहिता) सुष्ठु धृता। सुव्यूढा (अस्तु) (मे) मम (वशे) प्रभुत्वे ॥

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