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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 5
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - त्रिषन्धिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    60

    उत्ति॑ष्ठ॒ त्वं दे॑वज॒नार्बु॑दे॒ सेन॑या स॒ह। अ॒यं ब॒लिर्व॒ आहु॑त॒स्त्रिष॑न्धे॒राहु॑तिः प्रि॒या ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । ति॒ष्ठ॒ । त्वम् । दे॒व॒ऽज॒न॒ । अर्बु॑दे । सेन॑या । स॒ह । अ॒यम् । ब॒लि: । व॒: । आऽहु॑त: । त्रिऽसं॑धे: । आऽहु॑ति: । प्रि॒या ॥१२.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्तिष्ठ त्वं देवजनार्बुदे सेनया सह। अयं बलिर्व आहुतस्त्रिषन्धेराहुतिः प्रिया ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । तिष्ठ । त्वम् । देवऽजन । अर्बुदे । सेनया । सह । अयम् । बलि: । व: । आऽहुत: । त्रिऽसंधे: । आऽहुति: । प्रिया ॥१२.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 10; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (देवजन) हे विजयी जन ! (अर्बुदे) अर्बुदि [शूर सेनापति राजन्] (त्वम्) तू (सेनया सह) [अपनी] सेना के साथ (उत् तिष्ठ) खड़ा हो। (अयम्) यह (बलिः) बलि [धर्मयुद्ध की भेंट] (वः) तुम्हारे लिये (आहुतः) यथावत् दी गयी है। (त्रिषन्धेः) त्रिसन्धि [म० २। विद्वान् सेनापति] की यही (प्रिया) पियारी (आहुतिः) आहुति [बलि वा भेंट] है ॥५॥

    भावार्थ

    धर्मयुद्ध के लिये शूर सेनापति के साथ सब प्रजागण प्रसन्न होकर सन्नद्ध होवें ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(उत्तिष्ठ) उद्गच्छ (त्वम्) (देवजन) हे विजयिन् (अर्बुदे) अ० ११।९।१। हे पुरुषार्थिन् सेनापते (सेनया) (सह) (अयम्) (बलिः) बल दाने जीवने च-इन्। उपहारः (वः) युष्मभ्यम् (आहुतः) समन्ताद्दत्तः (त्रिषन्धेः) म० २। विदुषः सेनापतेः (आहुतिः) दानम् (प्रिया) प्रीता ॥

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    विषय

    युद्धयज्ञ में प्राणाहुति

    पदार्थ

    १. हे (देवजन) = शत्रु को जीतने की कामनाबाले! (अर्बुदे) = शत्रुसंहारक सेनापते! (सेनया सह) = सेना के साथ (त्वम् उत्तिष्ठ) = तू उठ खड़ा हो-युद्ध के लिए सन्नद्ध हो जा। (अयम्) = यह (बलि:) = युद्ध-यज्ञ में आत्मबलि (व: आहुत:) = आपके द्वारा दी गई है। युद्ध में देशरक्षा के लिए प्राणों तक को आहुत कर देनेवाले ये सैनिक हैं। यह (आहुति:) = प्राणों को युद्ध-यज्ञ में आहुत कर देना (त्रिषन्धेः प्रिया) = 'जल, स्थल व वायु-सेना' के सेनापति को प्रिय है।

    भावार्थ

    सेनापति सेना के साथ शत्रु के मुकाबले के लिए सन्नद्ध हो जाए। सेना द्वारा देशरक्षा के लिए युद्ध में अपने प्राणों की बलि दी जाती है। युद्ध-यज्ञ में पड़नेवाली यह प्राणों की आहुति सेनापति को प्रिय ही लगती है।

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    भाषार्थ

    (देवजन अर्बुदे) हे विजिगीषु१ जन ! शत्रुघातक सेनापति ! (त्वम्) तू (उत्तिष्ठ) उठ (सेनया सह) निज सेना के साथ। (वः) तुम सब की (अयं बलिः) यह बलि अर्थात् आत्मसर्मपण (आहुतः) युद्धाग्नि में आहुतिरूप हुआ है। (आहुतिः) यह आहुति (त्रिषन्धेः) तुम्हारे सेनासंचालक को (प्रिया) प्रिय है, अभीष्ट है।

    टिप्पणी

    [मन्त्रवर्णन से प्रतीत होता है कि युद्ध में साक्षात् युद्ध करने वाला अर्बुदि है। त्रिषन्धि सेना का संचालक है]। [१. देवः= विजिगीषु;, दिबु क्रीडा विजिगीषा व्यवहार आदि।

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    विषय

    शत्रुसेना का विजय।

    भावार्थ

    हे (देवजन) देवजन विजिगीषु पुरुषो ! (अर्बुदे) हे और हे अर्बुदे ! सेनापते ! (त्वं सेनया सह) तू सेना के साथ (उत्तिष्ठ) उठ। (वः) तुम लोगों की (अयं बलिः) यह विशेष बलि, आहुति, युद्ध रूप अग्नि में डाली जाती है। (त्रिसन्धेः) त्रिषन्धि महास्त्र के (आहुतिः) इस प्रकार की आहुति अति प्रिय होती है।

    टिप्पणी

    (द्वि० तृ०) ‘अयंबलिर्व आहुतिस्त्रिसन्धे राहुतिप्रिया’ इति सायणाभिमतः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृग्वङ्गिरा ऋषिः। मन्त्रोक्तस्त्रिषन्धिर्देवता। १ विराट् पथ्याबृहती, २ त्र्यवसाना षट्पा त्रिष्टुब्गर्भाति जगती, ३ विराड् आस्तार पंक्तिः, ४ विराट् त्रिष्टुप् पुरो विराट पुरस्ताज्ज्योतिस्त्रिष्टुप्, १२ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः, १३ षट्पदा जगती, १६ त्र्यवसाना षट्पदा ककुम्मती अनुष्टुप् त्रिष्टुब् गर्भा शक्वरी, १७ पथ्यापंक्तिः, २१ त्रिपदा गायत्री, २२ विराट् पुरस्ताद बृहती, २५ ककुप्, २६ प्रस्तारपंक्तिः, ६-११, १४, १५, १८-२०, २३, २४, २७ अनुष्टुभः। सप्तविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (देवजन-अबुर्दे) विजिगिषु विद्युदस्त्र प्रयोक्ता ! (त्वं सेनया सह-उतिष्ठ) तू सेना के साथ उठ (वः) तेरी (अयं बलि:आहुतः) संग्राम यज्ञ में यह बलि-भेंट समन्तरूप से दे दी गयी है- अब तू संग्राम में युद्धार्थ समर्पित कर दिया गया है (त्रिषन्धेः प्रिया आहुति:) और त्रिषन्धि-स्फोटक अस्त्र या उसके प्रयोक्ता न्यर्बुदि की संग्राम में अभीष्ट आहुति भी तेरे साथ देदी गयी है तुम दोनों के द्वारा संग्राम में विजय होना चाहिए ॥५॥

    विशेष

    ऋषिः-भृग्वङ्गिराः (भर्जनशील अग्निप्रयोगवेत्ता) देवता – त्रिषन्धिः ( गन्धक, मनः शिल, स्फोट पदार्थों का अस्त्र )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    War, Victory and Peace

    Meaning

    Arise you, brilliant and noble Commander, Arbudi, with your force. This tribute of appreciation, recognition and reward offered to you is Trishhandhi’s cherished contribution to you in consequence of your success.

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    Translation

    Stand thou up, O god-folk, O Arbudi, with the army; this tribute is offered (a-hu) to you (pl.); the offering (is) dear to Trisandhi.

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    Translation

    O wonderful man You Commanding Chief you rise with your army-let this (the army of foeman) offered to the thundering weapon (Trisandhi) as oblation. This oblation is liked by Trisandhi.

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    Translation

    Rise up, O victorious enterprising general, with thine army. This tribute of righteous war is offered thee, as a learned general welcomes war to espouse the cause of truth.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(उत्तिष्ठ) उद्गच्छ (त्वम्) (देवजन) हे विजयिन् (अर्बुदे) अ० ११।९।१। हे पुरुषार्थिन् सेनापते (सेनया) (सह) (अयम्) (बलिः) बल दाने जीवने च-इन्। उपहारः (वः) युष्मभ्यम् (आहुतः) समन्ताद्दत्तः (त्रिषन्धेः) म० २। विदुषः सेनापतेः (आहुतिः) दानम् (प्रिया) प्रीता ॥

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