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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 7
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - त्रिषन्धिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    106

    धू॑मा॒क्षी सं प॑ततु कृधुक॒र्णी च॑ क्रोशतु। त्रिष॑न्धेः॒ सेन॑या जि॒ते अ॑रु॒णाः स॑न्तु के॒तवः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    धू॒म॒ऽअ॒क्षी: । सम् । प॒त॒तु॒ । कृ॒धु॒ऽक॒र्णी । च॒ । क्रो॒श॒तु॒ । त्रिऽसं॑धे: । सेन॑या । जि॒ते । अ॒रु॒णा: । स॒न्तु॒ । के॒तव॑: ॥१२.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धूमाक्षी सं पततु कृधुकर्णी च क्रोशतु। त्रिषन्धेः सेनया जिते अरुणाः सन्तु केतवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    धूमऽअक्षी: । सम् । पततु । कृधुऽकर्णी । च । क्रोशतु । त्रिऽसंधे: । सेनया । जिते । अरुणा: । सन्तु । केतव: ॥१२.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 10; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (धूमाक्षी) धुएँ भरी आँखोंवाली, (कृधुकर्णी) मन्द कानोंवाली [शत्रुसेना] (सं पततु) गिर जावे (च) और (क्रोशतु) रोवे। (त्रिषन्धेः) त्रिसन्धि [म० २ त्रयीकुशल सेनापति] की (सेनया) सेना द्वारा (जिते) जीतने पर (अरुणाः) रक्तवर्ण [डरावने रूप] वाले (केतवः) झण्डे (सन्तु) होवें ॥७॥

    भावार्थ

    वीर सेनापति के आग्नेय आदि शस्त्रों से वैरियों की आँखें धुँधला जावें और ढोल आदि की ध्वनि से उनके कान बहरे हो जावें, इस प्रकार जीत होने पर अन्य दुष्टों को डराने को सेनापति अपनी जयपताका ऊँची करे ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(धूमाक्षी) बहुव्रीहौ सक्थ्यक्ष्णोः स्वाङ्गात् षच्। पा० ५।४।११३। इति षच्। षित्त्वाद् ङीष्। धूमपूरितनेत्रा (सम्) सम्यक् (पततु) निपद्यताम् (कृधुकर्णी) अ० ११।९।७। मन्दश्रवणा (च) (क्रोशतु) रोदितु (त्रिषन्धेः) म० २। त्रयीकुशलस्य सेनापतेः (सेनया) (जिते) जयकर्मणि (अरुणाः) म० २। रक्तवर्णाः (सन्तु) (केतवः) ध्वजाः ॥

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    विषय

    धूमाक्षी कृधुकर्णी

    पदार्थ

    १. धूमाक्षी-आग्नेयास्त्रों के धुएँ से आवृत आँखोंवाली, (कृधुकर्णी  च) = और पटहध्वनि से हतश्श्रवण सामर्थ्यवाली [अल्पश्रोत्रा] परकीया सेना क्रोशतु-किंकर्तव्यतामूढ़ बनी हुई आक्रोश करे । २. इसप्रकार (त्रिषन्धे:) = 'जल स्थल व वायुसेना' के सेनापति की (सेनया) = सेना के द्वारा जिते-शत्रु को जीत लेने पर (अरुणा: केतवः सन्तु) = हमारी अरुण वर्ण की पताकाएँ फहराएँ। हमारी विजयसूचक अरुणवर्ण की पताकाएँ आकाश में फहराएँ।

    भावार्थ

    शत्रसेना हमारे आग्नेयास्त्रों के धूम से व्याकुल आँखोंवाली व युद्ध-बाध की ध्वनि से विनष्ट श्रवण सामर्थ्यवाली होकर चीखें व चिलाएँ। हमारी अरुण वर्ण की विजय-पताकाएँ आकाश में फहराएँ।

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    भाषार्थ

    (धूमाक्षी) धूमपीड़ित आंखों वाली शत्रुसेना (संपततु) पृथिवी पर गिर पड़े, (च कृधुकर्णी) और चिल्लाहट तथा शोर द्वारा कटे कानों वाली अर्थात् बहरे कानों वाली हो कर (क्रोशतु) चिल्लाए। (त्रिषन्धेः सेनया जितें) त्रिषन्धि की सेना द्वारा विजय पाने पर (अरुणाः केतवः सन्तु) शत्रु के राज्य में हमारे लाल झंडे लहराएं।

    टिप्पणी

    [धूमाक्षी = "धूमेन आवृतानि अक्षीणि यस्याः (सायण)। कृधुकर्णी= "अल्पश्रोत्रा, पटहध्वनिना हतश्रवणसामर्थ्यां” (सायण)। अरुणाः= रुधिरेणाक्ताः अरुणवर्णाः (सायण)। वस्तुतः झण्डों का अरुण वर्ण घोर युद्ध में प्रस्रबित रक्त-खून का द्योतक है]।

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    विषय

    शत्रुसेना का विजय।

    भावार्थ

    शत्रु की सेना (धूमाक्षी) धूएं से पीड़ित चक्षु होकर (संपततु) भाग जाय और वह (कृधुकर्णी च) छोटे कान करके, अर्थात् कान दबा कर (क्रोशतु) चीखे। (त्रिषन्धेः) त्रिसन्धि नाम महास्त्र के बल पर (सेनया) सेना द्वारा (जिते) शत्रु के जीत लेने पर (अरुणाः) लाल (केतवः) झण्डे (सन्तु) खड़े किये जायं।

    टिप्पणी

    (तृ०) ‘चिसंधे सेनया’ इति क्वचित्।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृग्वङ्गिरा ऋषिः। मन्त्रोक्तस्त्रिषन्धिर्देवता। १ विराट् पथ्याबृहती, २ त्र्यवसाना षट्पा त्रिष्टुब्गर्भाति जगती, ३ विराड् आस्तार पंक्तिः, ४ विराट् त्रिष्टुप् पुरो विराट पुरस्ताज्ज्योतिस्त्रिष्टुप्, १२ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः, १३ षट्पदा जगती, १६ त्र्यवसाना षट्पदा ककुम्मती अनुष्टुप् त्रिष्टुब् गर्भा शक्वरी, १७ पथ्यापंक्तिः, २१ त्रिपदा गायत्री, २२ विराट् पुरस्ताद बृहती, २५ ककुप्, २६ प्रस्तारपंक्तिः, ६-११, १४, १५, १८-२०, २३, २४, २७ अनुष्टुभः। सप्तविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (धूमाक्षी) स्फोट पदार्थों के धुएं से भी भरी आँखों वाली हुई शत्रु सेना (सम्पततु) एक दूसरे पर ढेर के रूप में नीचे गिर पडे (च) और (कृधुकर्णी) स्फोटक ध्वनि से हख-मुडे हुए-दबे हुए या कटे-फटे जैसे कान वाली हुई (क्रोशतु) चिल्लावे (त्रिषन्धेः सेनया जिते) इस प्रकार त्रिषन्धि वज्रास्त्र या उसके प्रयोक्ता की सेना द्वारा जय होने पर (केतवः-अरुणाः सन्तु) उसकी चिनगारियां लाल हो जावें ॥७॥

    विशेष

    ऋषिः-भृग्वङ्गिराः (भर्जनशील अग्निप्रयोगवेत्ता) देवता – त्रिषन्धिः ( गन्धक, मनः शिल, स्फोट पदार्थों का अस्त्र )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    War, Victory and Peace

    Meaning

    Let the eye blinding smoke screen be fired and fall, let the deafening missile be fired and fall, and Trishandhi’s army being victorious, let the crimson flags be raised as a mark of victory.

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    Translation

    Let the smoke-eyed (f.) one fall together, and the crop-cared one(f.) yell; it being conquered by the army of Trisandhi, let the ensigns be red.

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    Translation

    Let the army of foe on the ground troubled in eyes with the smoke of gasses, let it cry heaven trouble in ears and let the red flags wave high in the sky when the army equipped with Trisandhi becomes victorious.

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    Translation

    Let the army of the enemy fall down blinded by the smoke of warlike instruments. Let it shriek deafened by the noise of military drums. Let red banners be raised when the host of a learned general hath won the day.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(धूमाक्षी) बहुव्रीहौ सक्थ्यक्ष्णोः स्वाङ्गात् षच्। पा० ५।४।११३। इति षच्। षित्त्वाद् ङीष्। धूमपूरितनेत्रा (सम्) सम्यक् (पततु) निपद्यताम् (कृधुकर्णी) अ० ११।९।७। मन्दश्रवणा (च) (क्रोशतु) रोदितु (त्रिषन्धेः) म० २। त्रयीकुशलस्य सेनापतेः (सेनया) (जिते) जयकर्मणि (अरुणाः) म० २। रक्तवर्णाः (सन्तु) (केतवः) ध्वजाः ॥

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