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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 19
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - त्रिषन्धिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    60

    त्रिष॑न्धे॒ तम॑सा॒ त्वम॒मित्रा॒न्परि॑ वारय। पृ॑षदा॒ज्यप्र॑णुत्तानां॒ मामीषां॑ मोचि॒ कश्च॒न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रिऽसं॑धे । तम॑सा । त्वम् । अ॒मित्रा॑न् । परि॑ । वा॒र॒य॒ । पृ॒ष॒दा॒ज्यऽप्र॑नुत्तानाम् । मा । अ॒मीषा॑म् । मो॒चि॒ । क: । च॒न ॥१२.१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रिषन्धे तमसा त्वममित्रान्परि वारय। पृषदाज्यप्रणुत्तानां मामीषां मोचि कश्चन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रिऽसंधे । तमसा । त्वम् । अमित्रान् । परि । वारय । पृषदाज्यऽप्रनुत्तानाम् । मा । अमीषाम् । मोचि । क: । चन ॥१२.१९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 10; मन्त्र » 19
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (त्रिषन्धे) हे त्रिसन्धि ! [म० २। त्रयीकुशल राजन्] (त्वम्) तू (तमसा) अन्धकार से (अमित्रान्) वैरियों को (परि वारय) घेर ले। (पृषदाज्यप्रणुत्तानाम्) दही घृत [आदि खाद्य वस्तुओं] से हटाये गये (अमीषाम्) इन [शत्रुओं] में से (कश्चन) कोई भी (मा मोचि) न छूटे ॥१९॥

    भावार्थ

    राजा आग्नेय आदि अस्त्र-शस्त्रों से अचेत और खान-पान आदि पदार्थों से शून्य करके शत्रुओं को हरा देवे ॥१९॥अन्तिम पाद आचुका है-अ–० ३।१९।८। तथा ११।९।२० ॥

    टिप्पणी

    १९−(त्रिषन्धे) म० २। हे त्रयीकुशल राजन् (तमसा) आयुधानामन्धकारेण (त्वम्) (अमित्रान्) शत्रून् (परि वारय) सर्वतो वेष्टय (पृषदाज्यप्रणुत्तानाम्) दधिधृतादिखाद्यवस्तूनां सकाशात् प्रक्षिप्तानाम् (अमीषाम्) शत्रूणाम् (मा मोचि) मुक्तो मा भूत् (कश्चन) एकोऽपि ॥

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    विषय

    तमसा परिवारय [मोहनास्त्र]

    पदार्थ

    १. (त्रिषन्धे) = हे 'जल, स्थल व वायु सेना का सन्धान करनेवाले सेनापते ! (त्वम्) = तू (तमसा) = धूम्रास्त्र द्वारा उत्पन्न किये गये अन्धकार से (अमित्रान् परिवारय) = शत्रुओं को घेर ले। शत्रु चारों ओर अन्धकार-ही-अन्धकार में होते हुए किंकर्तव्यमूढ़-से बन जाएँ। २. (पृषद् आग्य प्रणुत्तानाम्) = [पृष to kill आज्य-अंज् togo] विनाशकारी आक्रमण [धावे] से परे धकेले हुए (अमीषाम) = उन शत्रुओं में (कश्चन मा मोचि) = कोई भी छूटे नहीं। सब शत्रुओं का सफाया ही कर दिया जाए।

    भावार्थ

    त्रिपन्धि को चाहिए कि वह शत्रुसैन्य को, अन्धकार-ही-अन्धकार में करके, विनाशक आक्रमण द्वारा समाप्त कर दे।

     

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    भाषार्थ

    (त्रिषन्धे) हे त्रिषन्धि ! (त्वम्) तू (तमसा) तामसास्त्र द्वारा (अमित्रान) शत्रुओं को (परिवारय) सब ओर से आवृत कर ढांप, घेर। (पृषदाज्यप्रणुत्तानाम्) दधि, और घृत की आहुतियों द्वारा धकेले गए रोगोत्पादक जीवाणुओं के सदृश, धकेले गये (अमीषाम्) इन शत्रुओं में से (कश्चन) कोई भी (मा मोचि) न छूट पाए।

    टिप्पणी

    [तमसा = "ग्राह्यामित्रान् तमसा विध्य शत्रून्” (अथर्व० ३।२।५), अर्थात् तामसास्त्र द्वारा शत्रुओं को बींध। तथा 'असौ या सेना मरुतः परेषामस्मानैत्यभ्योजसा स्पर्धमाना। तां विध्यत तमसापव्रतेन यथैषामन्यो अन्यं न जानात् ॥ (अथर्व० ३।२।६), अर्थात् वह जो सेना, हे मरुतः! परायों की स्पर्धा करती हुई हमारी ओर ओज से आती है उसे वींधो, कार्य से हीन कर देने वाले तमः से, तामसास्त्र से, ताकि इन में से योद्धा एक-दूसरे को जान-पहचान न पाएं। मरुतः= सेना के अग्रभाग के योद्धा जो कि शत्रुओं को मार सकने में कुशल हों, और स्वयं मृत्यु से भयभीत न हों। पृषदाज्यप्रणुत्तानाम्= दधि और घृत की आहुतिया रोगकीटाणुओं का निराकरण करती हैं]।

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    विषय

    शत्रुसेना का विजय।

    भावार्थ

    हे (त्रिषन्धे) त्रिसन्धे ! (त्वम्) तू (अमित्रान्) शत्रुओं को (तमसा) अन्धकार से (परिवारय) घेर ले (पृषद्-आज्य-प्रणुत्तानाम्) महान् पराक्रम से पराजित (अमीषाम्) उन शत्रुओं में (कश्चन मा मोचि) कोई छूट कर भागने न पावे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृग्वङ्गिरा ऋषिः। मन्त्रोक्तस्त्रिषन्धिर्देवता। १ विराट् पथ्याबृहती, २ त्र्यवसाना षट्पा त्रिष्टुब्गर्भाति जगती, ३ विराड् आस्तार पंक्तिः, ४ विराट् त्रिष्टुप् पुरो विराट पुरस्ताज्ज्योतिस्त्रिष्टुप्, १२ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः, १३ षट्पदा जगती, १६ त्र्यवसाना षट्पदा ककुम्मती अनुष्टुप् त्रिष्टुब् गर्भा शक्वरी, १७ पथ्यापंक्तिः, २१ त्रिपदा गायत्री, २२ विराट् पुरस्ताद बृहती, २५ ककुप्, २६ प्रस्तारपंक्तिः, ६-११, १४, १५, १८-२०, २३, २४, २७ अनुष्टुभः। सप्तविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (त्रिषन्धे त्वम्) हे त्रिषन्धि वज्रप्रयोक्ता सेनानायक ! तू (तमसा) तामस अस्त्र अन्धकार फेंकने वाले अत्र से (अमित्रान् परिवारय) शत्रुओं को घेर ले (पृषदाज्यप्ररपुत्तानाम-अमीषां) दाहक वज्र से ताडित हुआ उन शत्रुओं में से 'प्रुष दाहे इत्यत्र पृषत्' "वज्रो ह्याज्यम्” (श० १।३।२।१७) (क:-चन) कोई भी (मा मोचि) मत छूट पावे ॥१९॥

    विशेष

    ऋषिः-भृग्वङ्गिराः (भर्जनशील अग्निप्रयोगवेत्ता) देवता – त्रिषन्धिः ( गन्धक, मनः शिल, स्फोट पदार्थों का अस्त्र )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    War, Victory and Peace

    Meaning

    O Trishandhi, you cover the enemies with smoke and darkness and, starved of food and water, devoid of their very life breath, forced back by fire and power, let none of them be spared.

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    Translation

    O Trisandhi, do thou envelop our enemies with darkness; of them yonder, thrust forth by the speckled butter, let none soever be freed.

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    Translation

    O Chief of army! You encompass around the enemies with gloomy darkness and let not escape any one of them who are inspired (to take part in the battle) with butter etc.eatables.

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    Translation

    O valiant general, do thou with the gloom of military weapons compass round the foes; let none escape of them conquered with great heroism.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १९−(त्रिषन्धे) म० २। हे त्रयीकुशल राजन् (तमसा) आयुधानामन्धकारेण (त्वम्) (अमित्रान्) शत्रून् (परि वारय) सर्वतो वेष्टय (पृषदाज्यप्रणुत्तानाम्) दधिधृतादिखाद्यवस्तूनां सकाशात् प्रक्षिप्तानाम् (अमीषाम्) शत्रूणाम् (मा मोचि) मुक्तो मा भूत् (कश्चन) एकोऽपि ॥

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