अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 10/ मन्त्र 18
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - त्रिषन्धिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
क्र॒व्यादा॑नुव॒र्तय॑न्मृ॒त्युना॑ च पु॒रोहि॑तम्। त्रिष॑न्धे॒ प्रेहि॒ सेन॑या जयामित्रा॒न्प्र प॑द्यस्व ॥
स्वर सहित पद पाठक्र॒व्य॒ऽअदा॑ । अ॒नु॒ऽव॒र्तय॑न् । मृ॒त्युना॑ । च॒ । पु॒र:ऽहि॑तम् । त्रिऽसं॑धे । प्र । इ॒हि॒ । सेन॑या । जय॑ । अ॒मित्रा॑न् । प्र । प॒द्य॒स्व॒ ॥१२.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
क्रव्यादानुवर्तयन्मृत्युना च पुरोहितम्। त्रिषन्धे प्रेहि सेनया जयामित्रान्प्र पद्यस्व ॥
स्वर रहित पद पाठक्रव्यऽअदा । अनुऽवर्तयन् । मृत्युना । च । पुर:ऽहितम् । त्रिऽसंधे । प्र । इहि । सेनया । जय । अमित्रान् । प्र । पद्यस्व ॥१२.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 10; मन्त्र » 18
विषय - मृत्युना च पुरोहितम्
पदार्थ -
१. हे (त्रिषन्धे) = 'जल, स्थल व वायु सेना के अध्यक्ष! तू (क्रव्यादा) = मांसभक्षक पशुओं से इन शत्रुओं को (अनुवर्तयन्) = अनुव्रत करता हुआ, (च) = और (मृत्युना पुरोहितम्) = मृत्यु ही जिसके सामने खड़ी है, अर्थात् जो अब शीघ्र ही समाप्त हो जाएगा, उस शत्रु को (सेनया प्रेहि) = सेना के साथ आक्रान्त कर, (जय) = इन शत्रुओं को जीत ले तथा (अमित्रान् प्रपद्यस्व) = इन शत्रुओं के मध्य में विजेता के रूप में प्रवेश करनेवाला हो।
भावार्थ -
हमारा त्रिषन्धि सेनापति शत्रुओं को परास्त करके विजेता के रूप में उनके मध्य में, सन्धि आदि के लिए, प्रवेश करे।
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