अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 10/ मन्त्र 4
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - त्रिषन्धिः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
अ॒न्तर्धे॑हि जातवेद॒ आदि॑त्य॒ कुण॑पं ब॒हु। त्रिष॑न्धेरि॒यं सेना॒ सुहि॑तास्तु मे॒ वशे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्त: । धे॒हि॒ । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । आदि॑त्य । कुण॑पम् । ब॒हु । त्रिऽसं॑धे: । इ॒यम् । सेना॑ । सुऽहि॑ता । अ॒स्तु॒ । मे॒ । वशे॑ ॥१२.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्तर्धेहि जातवेद आदित्य कुणपं बहु। त्रिषन्धेरियं सेना सुहितास्तु मे वशे ॥
स्वर रहित पद पाठअन्त: । धेहि । जातऽवेद: । आदित्य । कुणपम् । बहु । त्रिऽसंधे: । इयम् । सेना । सुऽहिता । अस्तु । मे । वशे ॥१२.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 10; मन्त्र » 4
विषय - सुहिता सेना
पदार्थ -
१.हे (जातवेद) = उत्पन्न ज्ञानवाले-समझदार (आदित्य) = [आदानात, दाप् लवने] समन्तात् शत्रुओं का खण्डन करनेवाले सेनापते! तू (बहु कुणपम्) = बहुत शवों को (अन्त: धेहि) = यहाँ रणांगण में स्थापित करनेवाला हो, अर्थात् (सहनश:) = शत्रुओं को धराशायी करनेवाला बन। २. (इमम्) = यह (सुहिता) = सम्यक् धारण की गई (मे सेना) = मेरी सेना त्(रिषन्धेः) = 'जल, स्थल व वायु सेना से मेलवाले मुख्य सेनापति के (वशे अस्तु) = वश में हो।
भावार्थ -
हमारा सेनापति समझदार, उपायकुशल [full of resources] व शत्रुओं का समन्तात् छेदन करनेवाला बने। सम्यक् धारण की गई यह सेना उसके वश में हो। विजय के लिए आवश्यक है कि हमारी सेना सुशिक्षित हो, उसका सम्यक् पालन किया जाए तथा वह पूर्णतया सेनापति के शासन में हो।
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