अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 3/ मन्त्र 17
सूक्त - अथर्वा
देवता - बार्हस्पत्यौदनः
छन्दः - आसुर्यनुष्टुप्
सूक्तम् - ओदन सूक्त
ऋ॒तवः॑ प॒क्तार॑ आर्त॒वाः समि॑न्धते ॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तव॑: । प॒क्तार॑: । आ॒र्त॒वा: । सम् । इ॒न्ध॒ते॒ ॥३.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतवः पक्तार आर्तवाः समिन्धते ॥
स्वर रहित पद पाठऋतव: । पक्तार: । आर्तवा: । सम् । इन्धते ॥३.१७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 3; मन्त्र » 17
विषय - ब्रह्मौदन के पक्ता [पाचक]
पदार्थ -
१. (ऋतव:) = ऋतुएँ (पक्तार:) = इस ओदन को पकानेवाली हैं। ज्ञानरूप ओदन का पाक काल के अधीन तो है ही। (आर्तवा:) = ऋतु-सम्बन्धी अहोरात्र (समिन्धते) = इसे सन्दीस करते हैं। ब्रह्मौदन के पकाने की साधनभूत ज्ञानाग्नि को दीप्त करते हैं। दिन-रात्रि में परिवर्तन के साथ ज्ञान में वृद्धि होती चलती है। २. (पञ्चबिलम् चरुम्) = 'गौ, अश्व, पुरुष, अजा, अवि' रूप पञ्चधा विभिन्न मुखवाली ब्रह्मौदन [चरु] के पाचन की साधनभूत स्थालों को (घर्म:) = यह आदित्य (अभीन्धे) = सम्यक् दीप्त करता है। ज्ञानाग्नि को दीस करने में सूर्य का प्रमुख स्थान है। सूर्य-किरणें केवल शरीर के स्वास्थ्य को ही नहीं बढ़ाती, बुद्धि को भी स्वस्थ करती हैं।
भावार्थ -
ऋतुएँ, ऋतु-सम्बन्धी अहोरात्र तथा सूर्य-किरणें हमारी बुद्धि की वृद्धि का साधन बनती हैं।
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