अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 3/ मन्त्र 50
सूक्त - अथर्वा
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - आसुर्यनुष्टुप्
सूक्तम् - ओदन सूक्त
ए॒तद्वै ब्र॒ध्नस्य॑ वि॒ष्टपं॒ यदो॑द॒नः ॥
स्वर सहित पद पाठए॒तत् । वै । ब्र॒ध्नस्य॑ । वि॒ष्टप॑म् । यत् । ओ॒द॒न: ॥५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
एतद्वै ब्रध्नस्य विष्टपं यदोदनः ॥
स्वर रहित पद पाठएतत् । वै । ब्रध्नस्य । विष्टपम् । यत् । ओदन: ॥५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 3; मन्त्र » 50
विषय - बध्नस्य विष्टपम्
पदार्थ -
१. (यत् एतत् ओदन:) = यह जो ब्रह्मौदन-सुखों से हमें सिक्त करनेवाला वेदज्ञान है, वह (वै) = निश्चय से (बध्नस्य) = इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपने में बाँधनेवाले महान् प्रभु का [ब्रह्मा का] (विष्टपम्) = लोक है, अर्थात् यह वेदज्ञान हमें प्रभु की ओर ले-चलनेवाला है। २. (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार इस ओदन के आधार को समझ लेता है, वह (बध्नलोकः भवति) = ब्रह्मलोकवाला होता है, अर्थात् (बध्नस्य विष्टपि) = उस सब ब्रह्माण्ड को अपने में बाँधनेवाले महान् प्रभु के लोक में (श्रयते) = आश्रय करता है।
भावार्थ -
यह ब्रह्मौदन [वेदज्ञान] ब्रह्म का लोक है। वेद को समझनेवाला पुरुष ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है।
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