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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 3/ मन्त्र 56
    सूक्त - अथर्वा देवता - मन्त्रोक्ताः छन्दः - प्राजापत्या बृहती सूक्तम् - ओदन सूक्त

    न च॑ सर्वज्या॒निं जी॒यते॑ पु॒रैनं॑ ज॒रसः॑ प्रा॒णो ज॑हाति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । च॒ । स॒र्व॒ऽज्या॒निम् । जी॒यते॑ । पु॒रा । ए॒न॒म् । ज॒रस॑: । प्रा॒ण: । ज॒हा॒ति॒ ॥५.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न च सर्वज्यानिं जीयते पुरैनं जरसः प्राणो जहाति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । च । सर्वऽज्यानिम् । जीयते । पुरा । एनम् । जरस: । प्राण: । जहाति ॥५.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 3; मन्त्र » 56

    पदार्थ -

    १. (य:) = जो (एवम्) = इसप्रकार (विदुष:) = सृष्टितत्त्व के ज्ञाता का-ओदन के महत्त्व को समझनेवाले का (उपद्रष्टा) = आलोचक [निन्दक] (भवति) = होता है (सः) = वह (प्राणं रुणद्धि) = प्राणशक्ति का निरोध कर बैठता है-उसकी प्राणशक्ति क्षीण हो जाती है। २. (न च प्राणं रुणद्धि) = और केवल प्राणशक्ति का निरोध ही नहीं कर बैठता, वह (सर्वज्यानि जीयते) = सब प्रकार की हानि का भागी होता है-वह सर्वस्व खो बैठता है। (न च सर्वज्यानि जीयते) = न केवल सर्वस्व खो बैठता है, (अपितु प्राण:) = प्राण-जीवन (एनम्) = इसे (जरसः पुरा जहाति) = बुढ़ापे से पहले ही छोड़ जाता है, अर्थात् युवावस्था में ही समाप्त हो जाता है।

    भावार्थ -

    जो ज्ञान के महत्त्व को न समझता हुआ ज्ञान-प्रवण नहीं होता, बल्कि ज्ञानियों की आलोचना ही करता है, वह प्राणशक्ति के हास-सर्वनाश व शीघ्रमृत्यु का भागी बनता है।

    गत सूक्तों में वर्णित ब्रह्मज्ञान में अपने को परिपक्व करनेवाला भार्गव' बनता है। यह उस 'स उ प्राणस्य प्राण: 'प्राणों के भी प्राण प्रभु से अपना मेल बनाकर 'वैदर्भि' [ otie, fasten, string together] कहलाता है। यह 'भार्गव वैदर्भि' 'प्राण' नाम से प्रभु का स्तवन करता है कि -

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