अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 4/ मन्त्र 12
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्
छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
तमि॒दं निग॑तं॒ सहः॒ स ए॒ष एक॑ एक॒वृदेक॑ ए॒व ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । इ॒दम् । निऽग॑तम् । सह॑: । स: । ए॒ष: । एक॑: । ए॒क॒ऽवृत् । एक॑: । ए॒व ॥४.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
तमिदं निगतं सहः स एष एक एकवृदेक एव ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । इदम् । निऽगतम् । सह: । स: । एष: । एक: । एकऽवृत् । एक: । एव ॥४.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 4; मन्त्र » 12
विषय - एक: एकवृत, एकः एव
पदार्थ -
१. (तस्य) = उस प्रभु के (इमे) = ये (नव) = नौ (कोशा:) = निधिरूप इन्द्रियाँ-दो कान, दो नासिका छिद्र, दो आँखें, मुख, गुदा व उपस्थ (विष्टम्भा:) = शरीर के विशिष्ट स्तम्भ हैं ये (नवधा हिता:) = नौ प्रकार से नौ स्थानों में पृथक्-पृथक् स्थापित हुए हैं। इनकी रचना में उस प्रभु की अद्भुत् महिमा दृष्टिगोचर होती है। इनके द्वारा (स:) = वे प्रभु (प्रजाभ्यः विपश्यति) = प्रजाओं का विशेषरूप से ध्यान करते हैं। (यत् च प्राणयति यत् च न) = जो भी प्रजाएँ प्राणधारण कर रही हैं और जो प्राणधारण नहीं कर रही हैं, उन सबको प्रभु धारण कर रहे हैं। २. तम्-उस प्रभु को (इदं सः) = वह शत्रुमर्षक बल (निगतम्) = निश्चय से प्राप्त है। (सः एषः एकः) = वे ये प्रभु एक हैं, (एकवृत्) = एक ही है [एक: वर्तते]। (एकः एव) = निश्चय से एक ही हैं। (अस्मिन्) = इस प्रभु में (एते देवा:) = ये सब देव (एकवृतः) = [एकस्मिन् वर्तन्ते]-एक स्थान में होनेवाले (भवन्ति) = होते हैं। वे प्रभु सब देवों के आधार हैं, प्रभु से ही तो उन्हें देवत्व प्राप्त हो रहा है।
भावार्थ -
प्रभु ने शरीर में नौ इन्द्रियों को नौ कोशों के रूप में स्थापित किया है। वे प्रभु चराचर जगत् का ध्यान करते हैं। प्रभु को शत्रुमर्षक बल प्राप्त है। प्रभु एक हैं। सब देव इस प्रभु के आधारवाले हैं।
इस भाष्य को एडिट करें