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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 4/ मन्त्र 1
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम् छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त

    स ए॑ति सवि॒ता स्वर्दि॒वस्पृ॒ष्ठेव॒चाक॑शत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । ए॒ति॒ । स॒वि॒ता । स्व᳡: । दि॒व: । पृ॒ष्ठे । अ॒व॒ऽचाक॑शत् ॥४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स एति सविता स्वर्दिवस्पृष्ठेवचाकशत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । एति । सविता । स्व: । दिव: । पृष्ठे । अवऽचाकशत् ॥४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 4; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (स:) = वह (सविता) = सर्वोत्पादक व सर्वप्रेरक (स्व:) = प्रकाशमय प्रभु (दिवः पृष्ठे) = [पृष्ठात् पृथिव्या अहमन्तरिक्षमारुहमन्तरिक्षाडिवमारुहम्। दिवो नकस्य पृष्ठात् स्वरज्योतिरगामहम्॥] द्युलोक के पृष्ठ पर-मोक्षधाम में (अवचाकशत्) = प्रकाश करता हुआ (एति) = प्राप्त होता है। मनुष्य जब पृथिवीपृष्ठ से ऊपर उठता है, अर्थात् भोग्य वस्तुओं की कामना से ऊपर उठता है और अन्तरिक्ष से भी ऊपर उठता है, अर्थात् हृदय में यशादि की कामना से भी रहित होता है तब धुलोक में पहुँचता है, अर्थात् ज्ञानरुचिवाला होता हुआ सदा ज्ञान में विचरण करता है। इसमें भी आसक्तियुक्त न होता हुआ यह स्वरज्योति प्रभु को प्राप्त करता है। यहाँ उसे प्रभु का प्रकाश प्रास होता है। २. उस समय (रश्मिभिः) = ज्ञान की किरणों से (नभः आभृतम्) = उसका मस्तिष्करूप युलोक व ददयाकाश (आ-भृत) = हो जाता है-वहाँ प्रकाश-ही-प्रकाश होता है-वहाँ अन्धकार का चिह भी नहीं होता। उस समय इसके हृदयदेश में (आवृत:)-प्रकाश से समन्तात् आच्छादित प्रकाशमय (महेन्द्र:) = महान् ऐश्वर्यशाली प्रभु (एति) = प्राप्त होते हैं।

    भावार्थ -

    जब हम पृथिवी, अन्तरिक्ष व धुलोक से ऊपर उठकर मोक्षलोक में पहुँचते हैं तब वे प्रभु प्रकाश प्राप्त कराते हुए हमें प्राप्त होते हैं। यह मुक्तात्मा सम्पूर्ण आकाश भृको प्रभु के प्रकाश से व्याप्त देखता है। इस जीवन्मुक्त के हृदयदेश में प्रकाश से आवृत प्रभु प्राप्त होते हैं।

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