अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 4/ मन्त्र 56
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्
छन्दः - निचृत्साम्नी बृहती
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
अ॒न्नाद्ये॑न॒ यश॑सा॒ तेज॑सा ब्राह्मणवर्च॒सेन॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्न॒ऽअद्ये॑न । यश॑सा । तेज॑सा । ब्रा॒ह्म॒ण॒ऽव॒र्च॒सेन॑ ॥९.५॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्नाद्येन यशसा तेजसा ब्राह्मणवर्चसेन ॥
स्वर रहित पद पाठअन्नऽअद्येन । यशसा । तेजसा । ब्राह्मणऽवर्चसेन ॥९.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 4; मन्त्र » 56
विषय - उरुः पृथुः भवद्धसु:
पदार्थ -
१.हे प्रभो! (वयम्) = हम (त्वा) = आपको (उरु:) = सर्वोत्तम [Excellent] (प्रथ:) = सर्वमहान् [Important] (सुभूः) = उत्तम शक्तिरूप में सब पदार्थों में वर्तमान (भुव:) = सबका उत्पत्ति-स्थान (इति) = इस रूप में (उपास्महे) = उपासित करते हैं। २. हे प्रभो! (वयम्) = हम (त्वा) = आपको प्रथ:-सर्वज्ञ विस्तृत वर:-सर्वश्रेष्ठ, वरणीय व्यच: सर्वव्यापक, (लोक:) = सर्वद्रष्टा (इति) = इस रूप में (उपास्महे) = उपासित करते हैं। ३. हे प्रभो! (वयम्) = हम (त्वा) = आपको भवद्वसुः-[भवन्ति वसूनि यस्मात्] सब वसुओं का उद्भव, (इदवसः) = [इन्दन्ति वसवः श्रेष्ठाः यस्मात्] श्रेष्ठों को ऐश्वर्यशाली बनानेवाला, (संयवसः) = पृथिवी आदि सब वसुओं का नियमन करनेवाला, (आयद्वसुः) = सब निवास-साधनों का विस्तार करनेवाला [आयच्छति विस्तारयति इति] (इति) = इस रूप में (उपास्महे) = उपासित करते है। ४. हे (पश्यत) = सर्वद्रष्टः प्रभो! (ते नमः अस्तु) = आपके लिए नमस्कार हो। (पश्यत) = हे सर्वद्रष्टः! (मा पश्य) = आप मेरा पालन कीजिए [Look-after] मुझे 'अन्नाद्य, यश, तेज व ब्रह्मवर्चस्' प्रास कराइए।
भावार्थ -
प्रभु उरु हैं, पृथु हैं, भवद्वसु हैं। ये सर्वद्रष्टा प्रभु मुझे अन्नाद्य, यश, तेज व ब्रह्मवर्चस् प्राप्त कराएं।
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