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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 4/ मन्त्र 14
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम् छन्दः - भुरिक् साम्नी त्रिष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त

    की॒र्तिश्च॒ यश॒श्चाम्भ॑श्च॒ नभ॑श्च ब्राह्मणवर्च॒सं चान्नं॑ चा॒न्नाद्यं॑ च ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    की॒र्ति: । च॒ । यश॑: । च॒ । अम्भ॑: । च॒ । नभ॑: । च॒ । ब्रा॒ह्म॒ण॒ऽव॒र्च॒सम् । च॒ । अन्न॑म् । च॒ । अ॒न्न॒ऽअद्य॑म् । च॒ ॥५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कीर्तिश्च यशश्चाम्भश्च नभश्च ब्राह्मणवर्चसं चान्नं चान्नाद्यं च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कीर्ति: । च । यश: । च । अम्भ: । च । नभ: । च । ब्राह्मणऽवर्चसम् । च । अन्नम् । च । अन्नऽअद्यम् । च ॥५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 4; मन्त्र » 14

    पदार्थ -

    (यः) = जो भी (एतं देवम्) = इस प्रकाशमय प्रभु को (एकवृतं वेद) = एकत्वेन वर्तमान जानता है, अर्थात् जो प्रभु की अद्वितीय सत्ता का अनुभव करता है, उसे (कीर्तिः च) = प्रभु-कीर्तन से प्राप्त होनेवाला यश, (यश: च) = लोकहित के कर्मों से प्राप्त होनेवाला यश, (अम्भ: च) = [अभि शब्दे] ज्ञानजल, (नभः च) = प्रबन्धसामर्थ्य, (ब्राह्मणवर्चसं च) = ब्रह्मतेज, (अन्नं च) = अन्न (अनाद्यं च) = और अन्न  के खाने का सामर्थ्य-ये सब वस्तुएँ प्राप्त होती हैं, अर्थात् प्रभु की अद्वितीय सत्ता का साक्षात् करनेवाला व्यक्ति भौतिक व आध्यात्मिक दोनों दृष्टिकोणों से उत्कृष्ट जीवनवाला बनता है।

    भावार्थ -

    प्रभु का उपासक 'यशस्वी, ज्ञान व शक्तिसम्पन्न, ऐश्वर्यशाली व स्वस्थ' जीवनवाला बनता है।

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