अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 4/ मन्त्र 24
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्
छन्दः - आसुरी पङ्क्तिः
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
य ए॒तं दे॒वमे॑क॒वृतं॒ वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । ए॒तम् । दे॒वम् । ए॒क॒ऽवृत॑म् । वेद॑ ॥६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
य एतं देवमेकवृतं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठय: । एतम् । देवम् । एकऽवृतम् । वेद ॥६.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 4; मन्त्र » 24
विषय - ब्रह्म च तपः च
पदार्थ -
१. (य:) = जो भी (एतं देवम्) = इस प्रकाशमय प्रभु को (एकवृतं वेद) = एकत्वेन वर्तमान जानता है, वह (ब्रह्म च तप: च) = वेदज्ञान व तपस्वी जीवन को (कीर्तिं च यश: च) = प्रभु कीर्तन से प्राप्त होनेवाले (यशः) = को तथा लोकहित में प्रवृत्तिजन्य यश को, (अम्भः च नभः च) = ज्ञानजल को व प्रबन्ध-सामर्थ्य को (ब्रह्मवर्चसं च) = ब्रह्मतेज को, (अन्नं च अन्नाद्यं च) = अन्न को व अन्न-भक्षण सामर्थ्य को, (भूतं च भव्यं च) = यशस्वी भूत व यशस्वी भविष्य को (श्रद्धा च रुचि: च) = उत्तम कर्मों में श्रद्धा व प्रीति को और परिणामत: (स्वर्ग:च स्वधा च) = सुखमय स्थिति व आत्मधारण शक्ति को प्राप्त करता है।
भावार्थ -
प्रभु की अद्वितीय सत्ता में विश्वास रखनेवाला व्यक्ति भौतिक व आध्यात्मिक जीवन को उत्कृष्ट बनाता हुआ यशस्वी जीवनवाला बनता है। इसके भूत व भविष्यत् दोनों ही सुन्दर होते हैं। वर्तमान में वह उत्तम कर्मों में श्रद्धा व प्रीतिवाला होकर सुखमय स्थिति व आत्मधारणशक्ति को प्राप्त करता है।
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