अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 4/ मन्त्र 15
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्
छन्दः - आसुरी पङ्क्तिः
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
य ए॒तं दे॒वमे॑क॒वृतं॒ वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । ए॒तम् । दे॒वम् । ए॒क॒ऽवृत॑म् । वेद॑ ॥५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
य एतं देवमेकवृतं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठय: । एतम् । देवम् । एकऽवृतम् । वेद ॥५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 4; मन्त्र » 15
विषय - कीर्तिः च यशः च
पदार्थ -
(यः) = जो भी (एतं देवम्) = इस प्रकाशमय प्रभु को (एकवृतं वेद) = एकत्वेन वर्तमान जानता है, अर्थात् जो प्रभु की अद्वितीय सत्ता का अनुभव करता है, उसे (कीर्तिः च) = प्रभु-कीर्तन से प्राप्त होनेवाला यश, (यश: च) = लोकहित के कर्मों से प्राप्त होनेवाला यश, (अम्भ: च) = [अभि शब्दे] ज्ञानजल, (नभः च) = प्रबन्धसामर्थ्य, (ब्राह्मणवर्चसं च) = ब्रह्मतेज, (अन्नं च) = अन्न (अनाद्यं च) = और अन्न के खाने का सामर्थ्य-ये सब वस्तुएँ प्राप्त होती हैं, अर्थात् प्रभु की अद्वितीय सत्ता का साक्षात् करनेवाला व्यक्ति भौतिक व आध्यात्मिक दोनों दृष्टिकोणों से उत्कृष्ट जीवनवाला बनता है।
भावार्थ -
प्रभु का उपासक 'यशस्वी, ज्ञान व शक्तिसम्पन्न, ऐश्वर्यशाली व स्वस्थ' जीवनवाला बनता है।
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