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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 4/ मन्त्र 26
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम् छन्दः - आर्च्यनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त

    स रु॒द्रो व॑सु॒वनि॑र्वसु॒देये॑ नमोवा॒के व॑षट्का॒रोऽनु॒ संहि॑तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । रु॒द्र: । व॒सु॒ऽवनि॑: । व॒सु॒ऽदेये॑ । न॒म॒:ऽवा॒के । व॒ष॒ट्ऽका॒र: । अनु॑ । सम्ऽहि॑त: ॥६.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स रुद्रो वसुवनिर्वसुदेये नमोवाके वषट्कारोऽनु संहितः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । रुद्र: । वसुऽवनि: । वसुऽदेये । नम:ऽवाके । वषट्ऽकार: । अनु । सम्ऽहित: ॥६.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 4; मन्त्र » 26

    पदार्थ -

    १. (सः एव) = वे अद्वितीय प्रभु ही (मृत्युः) = मृत्यु है-जीवों को प्राणों से वियुक्त करनेवाले व नया शरीर प्राप्त करानेवाले हैं। (सः अमृतम्) = वे ही मोक्षधाम को प्राप्त करानेवाले हैं। (सः अभ्वम्) = वे महान् हैं और (स: रक्षः) = वे ही सबके रक्षक हैं। २. (सः रुद्रः) = वे प्रभु ही ज्ञान देनेवाले हैं। (वसुदेये) = सब वस्तुओं के देने के कार्य में (वसुवनिः) = सब वस्तुओं का संभजन करनेवाले हैं [विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधसः] तथा (नमो वाके) = 'नम:' वचनपूर्वक किये जानेवाले ब्रह्मयज्ञ में (वषट्कार:) = 'स्वाहा' करनेवाले के रूप में (अनुसंहित:) = निरन्तर स्मरण किये जाते हैं। प्रभु ने जीवहित के लिए अपने को दे डाला है-सर्वमहान् त्याग करनेवाले प्रभु ही हैं। वे 'आत्मदा: 'हैं। ३. (इमे सर्वे यातव:) = ये सब गतिशील पिण्ड-सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि (तस्य) = उस प्रभु की (प्रशिषम् उपासते) = आज्ञा का उपासन करते हैं। ये सूर्यादि प्रभु के शासन में गति कर रहे हैं। (अमू सर्वा नक्षत्रा) = वे सब नक्षत्र (चन्द्रमसा सह) = चन्द्रमा के साथ (तस्य वशे) = उसके वश में है। प्रभु सब लोक-लोकान्तरों के अधिपति हैं और सब पिण्ड उस प्रभु के प्रशासन में गतिवाले हो रहे हैं।

    भावार्थ -

    प्रभु ही मृत्यु हैं, वे ही अमृत हैं। वे महान् हैं, रक्षक है, ज्ञानदाता हैं, वसुओं को प्रास करानेवाले हैं। त्यागपुञ्ज वे प्रभु नमस्करणीय हैं। सब पिण्ड प्रभु के शासन में गति कर रहे हैं।

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