Loading...

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 4/ मन्त्र 7
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम् छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त

    प॒श्चात्प्राञ्च॒ आ त॑न्वन्ति॒ यदु॒देति॒ वि भा॑सति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒श्चात् । प्राञ्च॑: । आ । त॒न्व॒न्ति॒ । यत् । उ॒त्ऽएति॑ । वि । भा॒स॒ति॒ ॥४.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पश्चात्प्राञ्च आ तन्वन्ति यदुदेति वि भासति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पश्चात् । प्राञ्च: । आ । तन्वन्ति । यत् । उत्ऽएति । वि । भासति ॥४.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 4; मन्त्र » 7

    पदार्थ -

    १. (तम्) = उस परमात्मा को (एकशीर्षाण:) = एक आत्मारूप सिरवाले (युता:) = परस्पर मिले हुए-मिलकर कार्य करते हुए (दश वत्सा:) = दस अत्यन्त प्रिय प्राण (उपतिष्ठन्ति) = समीपता से उपस्थित होते हैं। शरीर में प्राण प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय', इन दस भागों में विभक्त होकर कार्य करता है। ये शरीर में प्रियतम वस्तु हैं, इनके साथ ही जीवन है। इनकी साधना से इनका अधिष्ठाता 'आत्मा' प्रभु की उपासना करनेवाला बनता है। २. ये प्राण (पश्चात्) = पीछे व (प्राञ्चः) = आगे गतिवाले (आतन्वन्ति) = शरीर की शक्तियों का विस्तार करते हैं। इस प्राणसाधना को करता हुआ जीव (यत् उदेति) = जब उत्कर्ष को प्राप्त करता है तब (विभासति) = विशिष्ट दीप्तिवाला होता है। वस्तुत: यह प्राणसाधक प्रभु की दीति से (दीप्ति) = सम्पन्न बनता है। ३. (एष मारुतः गण:) = यह प्राणों का गण (तस्य) = उस प्रभु का ही है। प्रभु ही जीव के लिए इसे प्राप्त कराते हैं। (स) = वे प्रभु (शिक्याकृतः) = इन प्राणों का आधारभूत छींका बना हुआ (एति) = इस साधक को प्राप्त होता है। वस्तुत: प्रभु की उपासना प्राणशक्ति की वृद्धि का कारण बनती है। प्राणसाधना द्वारा हम प्रभु का उपासन कर पाते हैं।

    भावार्थ -

    आत्मा अधिष्ठाता है, दस प्राण उसके वत्स हैं, प्रियतम वस्तु हैं। ये पीछे-आगे शरीर में सर्वत्र शक्ति का विस्तार करते हैं। इन प्राणों का आधार प्रभु हैं। ये प्राण हमें प्रभु प्रासि में सहायक होते हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top