अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 4/ मन्त्र 42
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्
छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
पा॒पाय॑ वा भ॒द्राय॑ वा॒ पुरु॑षा॒यासु॑राय वा ॥
स्वर सहित पद पाठपा॒पाय॑ । वा॒ । भ॒द्राय॑ । वा॒ । पुरु॑षाय । असु॑राय । वा॒ ॥७.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
पापाय वा भद्राय वा पुरुषायासुराय वा ॥
स्वर रहित पद पाठपापाय । वा । भद्राय । वा । पुरुषाय । असुराय । वा ॥७.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 4; मन्त्र » 42
विषय - यज्ञरूप प्रभु
पदार्थ -
१. (सः) = वे प्रभु (यज्ञः) = यज्ञ हैं, उपास्य हैं। (तस्य यज्ञ:) = उस प्रभु का ही यज्ञ है। वस्तुत: यज्ञ प्रभु ही करते हैं। (सः) = वे प्रभु (यज्ञस्य) = यज्ञ के (शिरः कृतम्) = सिर बनाये गये हैं। ओ३म् इस नाम से ही यज्ञों में सब मन्त्रों का आरम्भ किया जाता है [सैषा एकाक्षरा ऋक् ओ३म् तपसोऽग्ने प्रादुर्बभूव। एष वै यज्ञस्य परस्ताद् युज्यते एषा पश्चात् एतया यज्ञस्य तायते-गो० १.१२]। २. (स:) = वे प्रभु ही वस्तुतः इन यज्ञों के होने पर स्(तनयति) = मेघ-गर्जना के रूप में गरजते हैं। (स: विद्योतते) = वे विद्युत् के रूप में घोतित होते हैं, (उ) = और (स:) = वे ही (अश्मानं अस्यति) = ओलों की वृष्टि करते हैं, ओलेरूप पत्थरों को फेंकते हैं। ३. इसप्रकार वृष्टि के द्वारा सबके लिए अन्न उत्पन्न करते हैं। (पापाय वा) = चाहे वह पापी पुरुष हो (भद्राय वा पुरुषाय) = चाहे कल्याणी प्रकृति का कृती पुरुष हो। (वा असरस्य) = चाहे असुर हो, आसुरी प्रकृति का हो। आप सभी के लिए (यत्) = जो (वा) = निश्चय से (ओषधीः कृणोषि) = ओषधियों को करते हैं। (यत् वा) = अथवा जो (भद्रया वर्षसि) = कल्याण के हेतु से वृष्टि करते हैं (यत् वा) = अथवा जो (जन्यं अवीवृधः) = उत्पन्न होनेवाले प्राणियों का वर्धन करते हैं।
भावार्थ -
प्रभु यज्ञ हैं। यज्ञों द्वारा बे वृष्टि करते हैं। वृष्टि के द्वारा वे सभी के लिए अन्नों का उत्पादन करते हैं।
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