अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 4/ मन्त्र 47
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्
छन्दः - यवमध्या गायत्री
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
भूया॒नरा॑त्याः॒ शच्याः॒ पति॒स्त्वमि॑न्द्रासि वि॒भूः प्र॒भूरिति॒ त्वोपा॑स्महे व॒यम् ॥
स्वर सहित पद पाठभूया॑न् । अरा॑त्या: । शच्या॑: । पति॑: । त्वम् । इ॒न्द्र॒ । अ॒सि॒ । वि॒ऽभू: । प्र॒ऽभू: । इति॑ । त्वा॒ । उप॑ । आ॒स्म॒हे॒ । व॒यम् ॥८.२॥
स्वर रहित मन्त्र
भूयानरात्याः शच्याः पतिस्त्वमिन्द्रासि विभूः प्रभूरिति त्वोपास्महे वयम् ॥
स्वर रहित पद पाठभूयान् । अरात्या: । शच्या: । पति: । त्वम् । इन्द्र । असि । विऽभू: । प्रऽभू: । इति । त्वा । उप । आस्महे । वयम् ॥८.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 4; मन्त्र » 47
विषय - विभूः प्रभूः
पदार्थ -
१. (इन्द्रः) = वह परमैश्वर्यशाली प्रभु (न-मुरात्) = न नष्ट होनेवाले कारणजगत् से (भूयान्) = बड़े हैं, अधिक है, इसीप्रकार (इन्द्र) = हे परमैश्वर्यशाली प्रभो! आप (मृत्युभ्यः) = न मरणधर्मा कार्यजगत् से (भूयान् असि) = अधिक हैं। यह प्रकृति व प्रकृतिजनित सारा ब्रह्माण्ड प्रभु के एक देश में ही है। २. हे प्रभो। आप (अरात्या:) = मानव-शान्ति की नाशिका अशुभवृत्ति से (भूयान्) = अधिक हैं। आपके उपासक को यह 'अराति' विनष्ट शान्तिवाला नहीं कर पाती। है इन्द्र-प्रभो! आप (शच्याः पति: असि) = शक्ति व प्रज्ञान के पति हैं। (वयम्) = हम (त्वा) = आपको (विभू:) = सर्वव्यापक तथा प्रभू: सर्वशक्तिमान् इति इस रूप में उपास्महे-उपासित करते हैं।
भावार्थ -
यह कारणजगत् व कार्यजगत् प्रभु के एक देश में है। प्रभु अपने उपासक की शान्ति को नष्ट नहीं होने देते। वे शक्ति व प्रज्ञान के स्वामी हैं। प्रभु सर्वव्यापक व सर्वशक्तिमान् हैं।
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