अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 14
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - आयुः
छन्दः - एकावसाना द्विपदा साम्नी भुरिग्बृहती
सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
ते त्वा॑ रक्षन्तु॒ ते त्वा॑ गोपायन्तु॒ तेभ्यो॒ नम॒स्तेभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठते । त्वा॒ । र॒क्ष॒न्तु॒ । ते । त्वा॒ । गो॒पा॒य॒न्तु॒ । तेभ्य॑: । नम॑: । तेभ्य॑: । स्वाहा॑ ॥१.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
ते त्वा रक्षन्तु ते त्वा गोपायन्तु तेभ्यो नमस्तेभ्यः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठते । त्वा । रक्षन्तु । ते । त्वा । गोपायन्तु । तेभ्य: । नम: । तेभ्य: । स्वाहा ॥१.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 14
विषय - तेभ्य: नमः, तेभ्यः स्वाहा [गोपन व रक्षण]
पदार्थ -
१. मन्त्र १३ में कहे गये (ते) = वे छह देव (त्वा रक्षन्तु) = तेरा रक्षण करें, तुझे वासनाओं का शिकार न होने दें। (ते त्वा गोपायन्तु) = वे तेरा रक्षण करें, तुझे नाना प्रकार के रोगों से आक्रान्त न होने दें। (तेभ्यः) = उन 'बोध-प्रतिबोध आदि के द्वारा सूचित देवों के लिए (नमः) = नमस्कार हो। इन देवों का उचित आदर करते हुए हम स्वस्थ शरीर व स्वस्थ मनवाले बनें। (तेभ्यः स्वाहा) = उन देवों को अपनाने के लिए हम आत्मत्याग करते हैं [स्व+हा] बिना त्याग के हममें इन देवों का निवास सम्भव नहीं।
भावार्थ -
'बोध-प्रतिबोध' आदि देव हमारे शरीर व मन' का रक्षण करें। इन देवों को हम आदर दें। इन्हें धारण करना जीवन का लक्ष्य बनाएँ। इनके धारण के लिए स्वार्थ-त्याग करें।
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