अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 17
उत्त्वा॒ द्यौरुत्पृ॑थि॒व्युत्प्र॒जाप॑तिरग्रभीत्। उत्त्वा॑ मृ॒त्योरोष॑धयः॒ सोम॑राज्ञीरपीपरन् ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । त्वा॒। द्यौ: । उत् । पृ॒थि॒वी । उत् । प्र॒जाऽप॑ति: । अ॒ग्र॒भी॒त् । उत् । त्वा॒ । मृ॒त्यो: । ओष॑धय: । सोम॑ऽराज्ञी: । अ॒पी॒प॒र॒न् ॥१.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्त्वा द्यौरुत्पृथिव्युत्प्रजापतिरग्रभीत्। उत्त्वा मृत्योरोषधयः सोमराज्ञीरपीपरन् ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । त्वा। द्यौ: । उत् । पृथिवी । उत् । प्रजाऽपति: । अग्रभीत् । उत् । त्वा । मृत्यो: । ओषधय: । सोमऽराज्ञी: । अपीपरन् ॥१.१७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 17
विषय - द्यौः-पृथिवी
पदार्थ -
१. हे पुरुष! (त्वा) = तुझे (द्यौः)-द्युलोक (उत् अग्रभीत्) = मृत्यु से ऊपर उठाए। धुलोकस्थ सूर्य रोगकृमि-विनाशक किरणों के द्वारा तुझे नीरोगता प्रदान करे । (पृथिवी उत्) = यह पृथिवी तुझे मृत्यु से ऊपर उठाए। (प्रजापतिः) = प्रजाओं का रक्षक प्रभु (उत्) = तुझे मृत्यु से ऊपर उठाए। यह पृथिवी माता तुझे शरीर-धारण के लिए आवश्यक भोजन दे तथा प्रभु का स्मरण तुझे उन भोगों के अति प्रयोग से बचानेवाला हो। २. ये पृथिवी से उत्पन्न होनेवाली (ओषधयः) = ओषधियाँ (त्वा) = तुझे (मृत्योः) = मृत्यु से (उत् अपीपरन्) = ऊपर उठाकर पालन करनेवाली हों। ये ओषधियाँ सोम (राज्ञी:) = [सोमस्य पत्न्यः] सोम की पत्नियाँ हैं-सोम इनका रक्षक है। शरीर में इनके द्वारा उत्पन्न होनेवाला सोम शरीर को दीप्त करनेवाला है [राजु दीप्ती]।
भावार्थ -
द्युलोकस्थ सूर्य व पृथिवी से उत्पन्न होनेवाले भोज्य पदार्थ हमें मृत्यु से बचाएँ। पृथिवी से उत्पन्न होनेवाली ओषधियों से बननेवाले सोम-कण हमारे जीवन को दीप्त बनाए।
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