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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 4
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - आयुः छन्दः - प्रस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त

    उत्क्रा॒मातः॑ पुरुष॒ माव॑ पत्था मृ॒त्योः पड्वी॑षमवमु॒ञ्चमा॑नः। मा च्छि॑त्था अ॒स्माल्लो॒काद॒ग्नेः सूर्य॑स्य सं॒दृशः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । क्रा॒म॒ । अत॑: । पु॒रु॒ष॒ । मा । अव॑ । प॒त्था॒: । मृ॒त्यो: । पड्वी॑शम् । अ॒व॒ऽमु॒ञ्चमा॑न: । मा । छि॒त्था॒: । अ॒स्मात् । लो॒कात् । अ॒ग्ने: । सूर्य॑स्य । स॒म्ऽदृश॑: ॥१.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्क्रामातः पुरुष माव पत्था मृत्योः पड्वीषमवमुञ्चमानः। मा च्छित्था अस्माल्लोकादग्नेः सूर्यस्य संदृशः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । क्राम । अत: । पुरुष । मा । अव । पत्था: । मृत्यो: । पड्वीशम् । अवऽमुञ्चमान: । मा । छित्था: । अस्मात् । लोकात् । अग्ने: । सूर्यस्य । सम्ऽदृश: ॥१.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १. हे (पुरुष) = इस देवनगरी में निवास करनेवाले पुरुष! (अत: उत् क्राम) = वेदज्ञान द्वारा इस मृत्युपाश-समूह से तु ऊपर उठ। (मा अवपत्था:) = तु अवनति-गर्त में गिरनेवाला न हो। (मृत्योः पड्बीशम्) = मृत्यु के पादबन्धन पाश को (अवमुञ्चमान:) = तू अपने से सुदूर विच्छिन्न करनेवाला हो। २. (अस्मात् लोकात्) = गत मन्त्र में 'दैव्या वाचा' शब्दों से वर्णित वेदज्ञान के प्रकाश से [लोक आलोक] (मा च्छित्था:) = तू पृथक् मत हो। (अग्नेः संदृश:) = अग्नि के सन्दर्शन से तू पृथक न हो-नित्य अग्निहोत्र का दर्शन करनेवाला बन तथा (सूर्यस्य) [संदृशः] = सूर्यदर्शन से पृथक् मत हो–सूर्यकिरणों के सम्पर्क में रहनेवाला बन।

    भावार्थ -

    दीर्घजीवन के लिए आवश्यक है कि हम [क] वेदज्ञान प्राप्त करें,[ख] नियम से अग्निहोत्र करें, [ग] सूर्य-किरणों के सम्पर्क में जीवन-यापन करें।

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