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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 2
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - आयुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त

    उदे॑नं॒ भगो॑ अग्रभी॒दुदे॑नं॒ सोमो॑ अंशु॒मान्। उदे॑नं म॒रुतो॑ दे॒वा उदि॑न्द्रा॒ग्नी स्व॒स्तये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । ए॒न॒म् । भग॑: । अ॒ग्र॒भी॒त् । उत् । ए॒न॒म् ।सोम॑: । अं॒शु॒ऽमान् । उत् । ए॒न॒म् । म॒रुत॑: । दे॒वा: । उत् । इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑ । स्व॒स्तये॑ ॥१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदेनं भगो अग्रभीदुदेनं सोमो अंशुमान्। उदेनं मरुतो देवा उदिन्द्राग्नी स्वस्तये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । एनम् । भग: । अग्रभीत् । उत् । एनम् ।सोम: । अंशुऽमान् । उत् । एनम् । मरुत: । देवा: । उत् । इन्द्राग्नी इति । स्वस्तये ॥१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. (एनम्) = रोगादि के कारण मूर्छा-लक्षण अन्धतमस् में प्रवेश करते हुए उस पुरुष को (भग:) = भजनीय-सेवनीय-किरणोंवाला सूर्य (उत् अग्रभीत्) = अन्धकार से ऊपर उठाता है। (अंशुमान् सोम:) = अमृतमय किरणोंवाला चन्द्र (एनम् उत्) = इस पुरुष को ऊपर उठाता है। सूर्य-चन्द्र की किरणों के सम्पर्क में निवास से इसकी प्राणापानशक्ति ठीक बनी रहती है। २. (एनम्) = इस पुरुष को (देवा:) = सब रोगों को पराजित करने की कामनावाले [दिव् विजिगीषायाम्] (मरुतः) = उनचास भागों में विभक्त हुए ये प्राणवायु (उत्) = सब रोगों से ऊपर उठाते हैं। इसी प्रकार (इन्द्राग्नी) = इन्द्र और अग्निदेव-जितेन्द्रियता व आगे बढ़ने की भावना (उत्) = इसे रोगों से ऊपर उठाते हैं और (स्वस्तये) = इसके कल्याण के लिए होते हैं।

    भावार्थ -

    दीर्घजीवन के लिए आवश्यक है कि हम [क] सूर्य और चन्द्र की किरणों के सम्पर्क में रहें, [ख] प्राणसाधना में प्रवृत्त हों, [ग] जितेन्द्रिय बनें और [घ] हममें आगे बढ़ने की भावना हो।

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