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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 2
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - आयुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
    109

    उदे॑नं॒ भगो॑ अग्रभी॒दुदे॑नं॒ सोमो॑ अंशु॒मान्। उदे॑नं म॒रुतो॑ दे॒वा उदि॑न्द्रा॒ग्नी स्व॒स्तये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । ए॒न॒म् । भग॑: । अ॒ग्र॒भी॒त् । उत् । ए॒न॒म् ।सोम॑: । अं॒शु॒ऽमान् । उत् । ए॒न॒म् । म॒रुत॑: । दे॒वा: । उत् । इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑ । स्व॒स्तये॑ ॥१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदेनं भगो अग्रभीदुदेनं सोमो अंशुमान्। उदेनं मरुतो देवा उदिन्द्राग्नी स्वस्तये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । एनम् । भग: । अग्रभीत् । उत् । एनम् ।सोम: । अंशुऽमान् । उत् । एनम् । मरुत: । देवा: । उत् । इन्द्राग्नी इति । स्वस्तये ॥१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्य कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (भगः) सेवनीय सूर्य ने (एनम्) इसे (उत्) ऊपर को, (अंशुमान्) अच्छी किरणोंवाले (सोमः) चन्द्रमा ने (एनम्) इसे (उत्) ऊपर को (अग्रभीत्) ग्रहण किया है। (देवाः) दिव्य (मरुतः) वायुगणों ने (एनम्) इसे (उत्) ऊपर को, (इन्द्राग्नी) बिजुली और [भौतिक] अग्नि ने (स्वस्तये) अच्छी सत्ता के लिये (उत्) ऊपर को [ग्रहण किया है] ॥२॥

    भावार्थ

    जो विज्ञानी पुरुष सूर्य आदि संसार के सब पदार्थों से उपकार लेते हैं, वे कल्याण भोगते हैं ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(उत्) ऊर्ध्वम् (एनम्) पुरुषम् (भगः) सेवनीयः सूर्यः (अग्रभीत्) अग्रहीत्। धृतवान् (उत्) (एनम्) (सोमः) चन्द्रः (अंशुमान्) प्रशस्तकिरणयुक्तः (उत्) (एनम्) (मरुतः) अ० १।२०।१। वायुगणाः (देवाः) प्रशस्तगुणाः (उत्) (इन्द्राग्नी) विद्युत्पावकौ (स्वस्तये) अ० १।३–०।२। सु+अस सत्तायाम्-ति। सुसत्तायै ॥

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    विषय

    उत्

    पदार्थ

    १. (एनम्) = रोगादि के कारण मूर्छा-लक्षण अन्धतमस् में प्रवेश करते हुए उस पुरुष को (भग:) = भजनीय-सेवनीय-किरणोंवाला सूर्य (उत् अग्रभीत्) = अन्धकार से ऊपर उठाता है। (अंशुमान् सोम:) = अमृतमय किरणोंवाला चन्द्र (एनम् उत्) = इस पुरुष को ऊपर उठाता है। सूर्य-चन्द्र की किरणों के सम्पर्क में निवास से इसकी प्राणापानशक्ति ठीक बनी रहती है। २. (एनम्) = इस पुरुष को (देवा:) = सब रोगों को पराजित करने की कामनावाले [दिव् विजिगीषायाम्] (मरुतः) = उनचास भागों में विभक्त हुए ये प्राणवायु (उत्) = सब रोगों से ऊपर उठाते हैं। इसी प्रकार (इन्द्राग्नी) = इन्द्र और अग्निदेव-जितेन्द्रियता व आगे बढ़ने की भावना (उत्) = इसे रोगों से ऊपर उठाते हैं और (स्वस्तये) = इसके कल्याण के लिए होते हैं।

    भावार्थ

    दीर्घजीवन के लिए आवश्यक है कि हम [क] सूर्य और चन्द्र की किरणों के सम्पर्क में रहें, [ख] प्राणसाधना में प्रवृत्त हों, [ग] जितेन्द्रिय बनें और [घ] हममें आगे बढ़ने की भावना हो।

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    भाषार्थ

    (भगः) भजनीय परमेश्वर ने (उद्) इसकी उन्नति के लिये (एनम्) इस आयुष्काम का (अग्रभीत्) ग्रहण किया है, इसे निज शरण में लिया है, (उद्) इसकी उन्नति के लिये (अंशुमान् सोमः) किरणों वाले चन्द्रमा ने (एनम्) इसे अपनाया है। (उद्) इसकी उन्नति तथा (स्वस्तये) कल्याण के लिये (देवाः मरुतः) मोदप्रद वायुओं ने तथा (इन्द्राग्नी) अन्तरिक्षस्थ विद्युत् तथा भौम-अग्नि ने (एनम्) इसे ग्रहण किया है।

    टिप्पणी

    [आयु की समृद्धि के लिये चन्द्रमा के प्रकाश का सेवन, मोदप्रद शुद्ध-स्वच्छ वायुओं का सेवन वर्षा-प्रद अन्तरिक्षस्थ विद्युत् का प्रयोग तथा अग्निहोत्र सम्बन्धी पार्थिवाग्नि आवश्यक है। देवाः=दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोद आदि (दिवादिः)]।

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    विषय

    दीर्घजीवन-विद्या

    भावार्थ

    मनुष्य के जीवन के आधार बतलाते हैं। (एनं) इस पुरुष को (भगः) भजन या सेवन करने योग्य अन्न ने (उत् अग्रभीत्) शरीर के रूप में ग्रहण किया है (एनं) और इसको (अंशुमान्) व्यापन शक्ति या रस से युक्त (सोमः) जल ने (उत्) ग्रहण किया है। (एनम्) और इसको (देवाः) गतिशील (मरुतः) प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान, कृकल, देवदत्त, नाग, कूर्म, धनंजय नामक वायुरूप जीवन के साधन प्राणों ने (उत्) ग्रहण किया है, और (इन्द्राग्नी) इन्द्र, मुख्यप्राण और अग्नि-जाठर अग्नि, वैश्वानर इन्होंने इस देहमय पुरुष को (उत्) धारण किया है। क्यों ? (स्वस्तये) जिससे यह जीव शरीर में सुखपूर्वक जीवन सत्ता का उपभोग करे॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। आयुर्देवता। १, ५, ६, १०, ११ त्रिष्टुभः। २,३, १७,२१ अनुष्टुभः। ४,९,१५,१६ प्रस्तारपंक्तयः। त्रिपाद विराड् गायत्री । ८ विराट पथ्याबृहती। १२ त्र्यवसाना पञ्चपदा जगती। १३ त्रिपाद भुरिक् महाबृहती। १४ एकावसाना द्विपदा साम्नी भुरिग् बृहती।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Long Life

    Meaning

    Bhaga, lord of immortal glory, takes care of this man. Soma, the moon, and Anshuman, the sun, take care of this man, and Maruts, winds and pranic energies, take care of him, and Indra, cosmic energy, and Agni, life’s heat of vitality, take care of him for health and all round well being.

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    Translation

    The Lord of good fortune has raised this man up; the radiant moon and the divine cloud-bearing winds (Maruts) have raised him up; the resplendent one (Indra) and the adorable one (Agni) have raised him up for his wellbeing.

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    Translation

    For the well-being and health of this man the sun has entered in the body of this man, the moon with its luster’s has occupied its place in this man’s body, the ten mighty vital airs and the electricity and fire have their place in this man’s structure.

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    Translation

    Savory food hath lifted up this man, and delicious water, fast vital breaths, mental vigor, digestive strength have raised him up to health.

    Footnote

    Vital breaths: Prana, Apana, Vyana, Udana, Samana, Naga, Kurma, Krikala, DevDutt, Dhananjya, the eleven breaths that conduce to health and longevity.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(उत्) ऊर्ध्वम् (एनम्) पुरुषम् (भगः) सेवनीयः सूर्यः (अग्रभीत्) अग्रहीत्। धृतवान् (उत्) (एनम्) (सोमः) चन्द्रः (अंशुमान्) प्रशस्तकिरणयुक्तः (उत्) (एनम्) (मरुतः) अ० १।२०।१। वायुगणाः (देवाः) प्रशस्तगुणाः (उत्) (इन्द्राग्नी) विद्युत्पावकौ (स्वस्तये) अ० १।३–०।२। सु+अस सत्तायाम्-ति। सुसत्तायै ॥

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