अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 11
रक्ष॑न्तु त्वा॒ग्नयो॒ ये अ॒प्स्वन्ता रक्ष॑तु त्वा मनु॒ष्या॒ यमि॒न्धते॑। वै॑श्वान॒रो र॑क्षतु जा॒तवे॑दा दि॒व्यस्त्वा॒ मा प्र धा॑ग्वि॒द्युता॑ स॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठरक्ष॑न्तु । त्वा॒ । अ॒ग्नय॑: । ये । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । रक्ष॑तु । त्वा॒ । म॒नुष्या᳡: । यम् । इ॒न्धते॑ । वै॒श्वा॒न॒र: । र॒क्ष॒तु॒ । जा॒तऽवे॑दा: । दि॒व्य: । त्वा॒ । मा । प्र । धा॒क् । वि॒ऽद्युता॑ । स॒ह ॥१.११॥
स्वर रहित मन्त्र
रक्षन्तु त्वाग्नयो ये अप्स्वन्ता रक्षतु त्वा मनुष्या यमिन्धते। वैश्वानरो रक्षतु जातवेदा दिव्यस्त्वा मा प्र धाग्विद्युता सह ॥
स्वर रहित पद पाठरक्षन्तु । त्वा । अग्नय: । ये । अप्ऽसु । अन्त: । रक्षतु । त्वा । मनुष्या: । यम् । इन्धते । वैश्वानर: । रक्षतु । जातऽवेदा: । दिव्य: । त्वा । मा । प्र । धाक् । विऽद्युता । सह ॥१.११॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य कर्त्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्य !] (अप्सु अन्तः) जलों के भीतर (ये) जो (अग्नयः) अग्नियाँ हैं, वे (त्वा) तेरी (रक्षन्तु) रक्षा करें, (यम्) जिसको (मनुष्याः) मनुष्य [यज्ञ आदि में] (इन्धते) जलाते हैं, वह [अग्नि] (त्वा) तेरी (रक्षतु) रक्षा करे। (वैश्वानरः) सब नरों में वर्तमान, (जातवेदाः) धन वा ज्ञान उत्पन्न करनेवाला [जाठराग्नि तेरी] (रक्षतु) रक्षा करे, (दिव्यः) आकाश में रहनेवाला [सूर्य] (विद्युता सह) बिजुली के साथ (त्वा) तुझको (मा प्र धाक्) न जला डाले ॥११॥
भावार्थ
मनुष्य सब प्रकार के अग्नि आदि पदार्थों उपकार लेकर शरीररक्षा करें ॥११॥
टिप्पणी
११−(रक्षन्तु) (त्वा) (अग्नयः) (ये) (अप्सु) उदकेषु (अन्तः) मध्ये (रक्षतु) पालयतु (अन्ता रक्षतु) ढ्रलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः। पा० ६।३।१११। इति दीर्घः (त्वा) (मनुष्याः) (यम्) अग्निम् (इन्धते) अन्तर्गतण्यर्थः। दीपयन्ति यज्ञादिषु (वैश्वानरः) सर्वनरेषु वर्तमानो जाठराग्निः (रक्षतु) (जातवेदाः) जातधनः। जातज्ञानः (दिव्यः) दिवि आकाशे भवः सूर्यः (त्वा) (प्र) प्रकर्षेण (मा धाक्) दह भस्मीकरणे-लुङ्। मन्त्रे घसह्वर०। पा० २।४।८०। च्लेर्लुक्। मा दहतु ॥
विषय
अग्नयः
पदार्थ
१. (त्वा) = तुझे ये (अग्नयः) = अग्नियाँ (रक्षन्तु) = रक्षित करें, ये (अप्सु अन्त:) = जो प्रजाओं में निवास करती हैं, ये अग्नियाँ 'माता, पिता, आचार्य रूप हैं। 'पिता वै गार्हपत्योऽग्निर्माताऽग्निरीक्षण: स्मृतः । गुरुराहवनीयस्तु साऽग्नित्रेता गरीयसी' मातारूप अग्नि तुझे चरित्रवान्, पितारूप अग्नि शिष्टाचार-सम्पन्न तथा गुरुरूप अग्नि ज्ञानदीप्त जीवनवाला बनाये। वह अग्नि भी (त्वा रक्षतु) = तेरा रक्षण करे, (यम) = जिसे (मनुष्या:) = ननशील पुरुष (इन्धते) = यज्ञवेदी में दीप्त किया करते हैं। यह अग्निहोत्र में दीस अग्नि भी रोगकृमियों के विनाश के द्वारा तेरा रक्षण करे। २. वह (जातवेदा:) = सर्वज्ञ, सर्वव्यापक (वैश्वानर:) = मानवमात्र का हित करनेवाला प्रभु (रक्षतु) = तेरा रक्षण करे। यह (दिव्यः) द्युलोक में होनेवाला सूर्यरूप अग्नि (विद्युता सह) = विद्युत् के साथ त्(वा मा प्रधाक्) = तुझे दग्ध करनेवाला न हो। सूर्य या विद्युत् के कारण किसी प्रकार की आधिदैविक आपत्ति तुझपर न आये।
भावार्थ
माता,पिता व आचार्यरूप अग्नियों से हमारा जीवन बड़ा सुन्दर बने। नियम से अग्निहोत्र करते हुए हम रोगकृमियों का विनाश करके सुखी व नीरोग हों। प्रभु हमारे रक्षक हों। प्रभु की ये सूर्य या विद्युद्प विभूतियाँ हमारे लिए कल्याणकर हों।
भाषार्थ
(ये अग्नयः) जो अग्नियां (अप्सु अन्तः) जलों के भीतर हैं वे (त्वा रक्षन्तु) तेरी रक्षा करें, (यम्) जिसे (मनुष्याः इन्धते) मनुष्य प्रदीप्त करते हैं [वह अग्नि] (त्वा रक्षतु) तेरी रक्षा करे। (वैश्वानरः) सब नर-नारियों का हितकारी (जातवेदाः) परमेश्वर (रक्षतु) तेरी रक्षा करे, (विद्यता सह) विद्युत् के साथ (दिव्यः) द्युलोकस्थ [सूर्याग्नि] (त्वा) तुझे (मा प्रधाक्) दग्ध न करे।
टिप्पणी
[भिन्न-भिन्न स्थानों के जलों में अग्नियां होती हैं। यथा “अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा। अग्निं च विश्वशंभुवम्" (अथर्व० १।६।२) में जलों में सब औषधों की, और सब रोगों को शान्त करने वाली अग्नि की सत्ता कही है। जलचिकित्सा द्वारा पुरुष की रक्षा होती है। मनुष्य पाकाग्नि को, तथा अग्निहोत्र आदि यज्ञिय अग्नियों को प्रदीप्त करते हैं। ये भी रक्षक हैं। वैश्वानर-अग्नि भी सब की रक्षा करती है। जातवेदाः= जातप्रज्ञानः (निरुक्त ७।५।१९)। दिव्य अग्नि= सूर्य। तथा विद्युत् है। मेघीय-विद्युत्। अर्थात् निवासगृह ऐसे होने चाहिये जिन में सूर्य का ताप, संतापकारी न हो, और जिन्हें मेघीय-विद्युत्प्रपात नष्ट न कर सके]।
विषय
दीर्घजीवन-विद्या
भावार्थ
हे पुरुष ! (ये) जो (अप्सु अन्तः) प्रजाओं में या लोकों में रहने वाले (अग्नयः) अग्नि, प्रकाशमान सूर्य चन्द्र, तारे अथवा प्रजाओं में रहने वाले विद्वान् गण हैं (त्वा रक्षन्तु) वे तेरी रक्षा करें। और (यम्) जिसको (मनुष्याः) मननशील पुरुष (इन्धते) प्रदीप्त करते हैं वह अग्नि भी (त्वा रक्षतु) तेरी रक्षा करे। और (जात-वेदाः) सब प्राणियों में व्यापक या सर्वज्ञ (वैश्वानरः) सब का हितकारक, जाठर अग्नि या ईश्वर भी (रक्षतु) तेरी रक्षा करे, (दिव्यः) दिव्य आकाश में उत्पन्न होने वाला अग्नि भी (विद्युता सह) विद्युत के सहित तुझे (मा प्र धाग्) न जलावे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। आयुर्देवता। १, ५, ६, १०, ११ त्रिष्टुभः। २,३, १७,२१ अनुष्टुभः। ४,९,१५,१६ प्रस्तारपंक्तयः। त्रिपाद विराड् गायत्री । ८ विराट पथ्याबृहती। १२ त्र्यवसाना पञ्चपदा जगती। १३ त्रिपाद भुरिक् महाबृहती। १४ एकावसाना द्विपदा साम्नी भुरिग् बृहती।
इंग्लिश (4)
Subject
Long Life
Meaning
Let the fire energies fluent in waters and in nature’s waves of energy protect and promote you on the path of Dharma. Let the yajnic fires which men light and feed protect and guide you on the way forward. Let Vaishvanara Jataveda, cosmic vitality and refulgent Divinity, guard and promote you. And may the heavenly sun along with the electric energy of lightning in the middle regions never hurt and burn you out of existence.
Translation
May the fires, that dwell within the waters, protect you. May the one, whom men kindle, protect you. May the one residing in all human beings, the omniscient, protect you. May the celestial one, not burn you, with the lightning.
Translation
O man! guard you the fires present within the waters, be the means of protection for you the fire which the people enkindle for yajana, may the fire present in form of heat in the body save you and let not the celestial fire burn you with lightning.
Translation
Thy guardians be the learned persons amongst the subjects. Thy guardian be the fire which men enkindle. Thy guardian be the All-knowing God, the Well-wisher of all: let not celestial fire with lightning burn thee.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
११−(रक्षन्तु) (त्वा) (अग्नयः) (ये) (अप्सु) उदकेषु (अन्तः) मध्ये (रक्षतु) पालयतु (अन्ता रक्षतु) ढ्रलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः। पा० ६।३।१११। इति दीर्घः (त्वा) (मनुष्याः) (यम्) अग्निम् (इन्धते) अन्तर्गतण्यर्थः। दीपयन्ति यज्ञादिषु (वैश्वानरः) सर्वनरेषु वर्तमानो जाठराग्निः (रक्षतु) (जातवेदाः) जातधनः। जातज्ञानः (दिव्यः) दिवि आकाशे भवः सूर्यः (त्वा) (प्र) प्रकर्षेण (मा धाक्) दह भस्मीकरणे-लुङ्। मन्त्रे घसह्वर०। पा० २।४।८०। च्लेर्लुक्। मा दहतु ॥
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