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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 16
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - आयुः छन्दः - प्रस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
    49

    मा त्वा॑ ज॒म्भः संह॑नु॒र्मा तमो॑ विद॒न्मा जि॒ह्वा ब॒र्हिः प्र॑म॒युः क॒था स्याः॑। उत्त्वा॑दि॒त्या वस॑वो भर॒न्तूदि॑न्द्रा॒ग्नी स्व॒स्तये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । त्वा॒ । ज॒म्भ: । सम्ऽह॑नु: । मा । तम॑: । वि॒द॒त् । मा । जि॒ह्वा । आ । ब॒र्हि: । प्र॒ऽम॒यु: । क॒था । स्या॒: । उत् । त्वा॒ । आ॒दि॒त्या: । वस॑व: । भ॒र॒न्तु॒ । उत् । इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑ । स्व॒स्तये॑ ॥१.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा त्वा जम्भः संहनुर्मा तमो विदन्मा जिह्वा बर्हिः प्रमयुः कथा स्याः। उत्त्वादित्या वसवो भरन्तूदिन्द्राग्नी स्वस्तये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा । त्वा । जम्भ: । सम्ऽहनु: । मा । तम: । विदत् । मा । जिह्वा । आ । बर्हि: । प्रऽमयु: । कथा । स्या: । उत् । त्वा । आदित्या: । वसव: । भरन्तु । उत् । इन्द्राग्नी इति । स्वस्तये ॥१.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 16
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्य कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (मा) न तो (जम्भः) नाश करनेवाला (संहनुः) विघ्न, (मा)(तमः) अन्धकार, (आ) और (मा)(बर्हिः) सतानेवाली (जिह्वा) जीभ (त्वा) तुझको (विदत्) पावे, (कथा) किस प्रकार से (प्रमयुः) तू गिर जानेवाला (स्याः) होवे। (त्वा) तुझको (आदित्याः) प्रकाशमान विद्वान् लोग और (वसवः) श्रेष्ठ पदार्थ (उत्) ऊपर (भरन्तु) ले चलें और (इन्द्राग्नी) मेघ और अग्नि (स्वस्तये) सुन्दर सत्ता के लिये (उत्) ऊपर [ले चलें] ॥१६॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य सब विघ्नों और अपवादों से बचकर विद्वानों और उत्तम पदार्थों की प्राप्ति से उन्नति करते हैं, वे अपने जीवन में सुख भोगते हैं ॥१६॥

    टिप्पणी

    १६−(मा) निषेधे (त्वा) त्वाम् (जम्भः) जभि नाशने-अच्। नाशकः (संहनुः) शॄस्वृस्निहित्रप्यसिवसिहनि०। उ० १।१०। हन हिंसागत्योः-उ। विघ्नः। मृत्युः (मा) (तमः) अन्धकारः (विदत्) विद्लृ लाभे-लुङ्। लभताम् (मा) (जिह्वा) रसना (आ) समुच्चये। (बर्हिः) बृंहेर्नलोपश्च। उ० २।१०९। बर्ह हिंसायाम्-इसि। हिंसास्वभावा (प्रमयुः) भृमृशीङ्०। उ० १।७। डुमिञ् प्रक्षेपणे-उ। प्रक्षिप्तः (कथा) केन प्रकारेण (स्याः) त्वं भवेः (उत्) ऊर्ध्वम् (त्वा) (आदित्याः) अ० १।९।१। प्रकाशमाना विद्वांसः (वसवः) श्रेष्ठपदार्थाः (भरन्तु) धारयन्तु (उत्) (इन्द्राग्नी) मेघपावकौ (स्वस्तये) सुसत्तायै ॥

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    विषय

    जम्भ, संहनु, तमस, जिह्वा व बहि' का शिकार न होना

    पदार्थ

    १. (मा) = मत (त्या) = तुझे (जम्भ:) = [जम्भनं Sexual intercourse] काम-विलास (विदत्) = प्रात करे। तू कामोपभोग में न फंस जाए, (संहनुः) = क्रोध में दाँतों का कटकटाना [Clashing] भी मत प्रास हो-तू एकदम क्रोध में आपा न खो बैठे। (मा तमः) = [विदत्]-अज्ञानान्धकार भी तुझे प्राप्त न हो। (मा जिह्वा) = जिह्वा तुझे प्राप्त न करे, अर्थात् तू बहुत खाने की वृत्तिवाला न बन जाए। (बहि:) [बह to speak] = तू बहुत बोलनेवाला न हो जाए। ऐसा होने पर (प्रमयुः कथा स्या:) = [प्रगतहिंसः] हिंसा को प्राप्त न होनेवाला तू कैसे हो सकता है? 'काम, क्रोध, अज्ञान, अतिभक्षण व अतिभाषण' की वृत्तियाँ ही विनाश का कारण बनती हैं। २. (स्वा) = तुझे (आदित्या:) = सब ज्ञानों का आदान करनेवाले और (वसवः) = निवास को उत्तम बनानेवाले पुरुष [माता, पिता व आचार्य] उद (भरन्तु) = जम्भ आदि से ऊपर उठानेवाले हों-तुझे इनका शिकार न होने दें। (इन्द्राग्री) = इन्द्र और अग्नि-जितेन्द्रियता तथा आगे बढ़ने की भावना तुझे (उत्) = कामादि का शिकार होने से बचाएँ, तेरा उद्धार करें। इसप्रकार ये सब (स्वस्तये) = तेरे कल्याण के लिए हों।

    भावार्थ

    हम 'काम, क्रोध, अन्धकार [अज्ञान], अतिभुक्ति तथा अतिवोक्ति [बहुत बोलने]' के शिकार न हों। हमें ज्ञानी व हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले माता, पिता, आचार्य काम-क्रोध आदि की वृतियों से ऊपर उठाएँ। हम जितेन्द्रिय व आगे बढ़ने की वृत्तिवाले हों। इसप्रकार हम अपना कल्याण सिद्ध करनेवाले बनें।

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    भाषार्थ

    (जम्भः) दाढ़ (संहनु) परस्पर मिलकर (त्वा) तेरा हनन (मा) न करे, (तमः) तम (मा विदत्) तुझे न प्राप्त हो, (जिह्वा) तेरी वाणी (बर्हिः) किसी की हिंसा (मा) न करे, (प्रमयुः) हिंसा करने वाला (कथा) किस प्रकार (स्याः) तू हो सकता है ? (आदित्याः वसवः) आदित्य और वसु कोटि के आचार्य (त्वा) तेरा (उद्भरन्तु) उद्धार करें (इन्द्राग्नी) इन्द्र और अग्नि (स्वस्तये) तेरे कल्याण के लिये हों।

    टिप्पणी

    [संहनुः = सम् (मेल) + हनुः (जबड़ा)। हिंस्र प्राणी के जम्भ अर्थात् दाढ़ें ऐसी न हों कि उसके दो जबड़ों परस्पर मिल जांय। काटना तभी सम्भव होता है जब कि हिंस्र के मुख के ऊपर और नीचे के दो जबड़े मिल जाँय। इसके द्वारा यह कहा गया है कि सांप आदि हिंस्र प्राणी तुझे न काटें, और तेरा हनन न करें। हनुः= हन्यतेऽनेनेति हनुः कपोलावयवः (उणा० १।१०, दयानन्द)। विषैले प्राणी द्वारा काटने पर मृत्यु भी सम्भव है और मूर्च्छा भी। तुझे तम अर्थात् मूर्च्छान्धकार न प्राप्त हो, इसे "तमो मा विदत् " द्वारा सूचित किया है। जिह्वा का अर्थ है वाणी, वाक् "जिह्वा वाङ्नाम " (निघं० १।११) और बर्हिः का अर्थ है काटने वाली। बर्ह हिंसायाम् (चुरादिः, भ्वादिः), अर्थात् तेरी वाणी दूसरों को काटने वाली अर्थात् कटु न हो। जब उपनीत ब्रह्मचारी वाणी द्वारा भी किसी की हिंसा न करेगा, तो उसने शरीर द्वारा तो हिंसा किसी प्रकार भी करना सम्भव नहीं। "प्रमयुः" अर्थात् वह ब्रह्मचारी किसी प्रकार हिंसा करने वाला नहीं हो सकता। प्रमयुः= प्र + मीङ, मीञ् हिंसायाम् (दिवादिः, क्र्यादिः) + उः (औणादिक प्रत्ययः)। इन्द्रः = सम्राट् “इन्द्रश्च सम्राट् (यजु० ८।३७) ; अग्निः= अग्रणीर्भवति (निरुक्त) प्रकरणानुसार अग्निः= अग्रणी प्रधानमन्त्री। अभिप्राय यह है कि राष्ट्रावस्था ऐसी हो कि सभी अधिकारी ब्रह्मचारियों के कल्याण की व्यवस्था करें]।

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    विषय

    दीर्घजीवन-विद्या

    भावार्थ

    (त्वा) तुझे (जम्भः) अंगों को जकड़ने वाला, (संहनुः) जबाड़ों को पकड़ने वाला रोग (मा विदत्) कभी न पकड़े और (तमः) आंखों के आगे अंधेरा सा ला देने वाला शिरोरोग या तमक रोग भी तुझे न पकड़े, और (जिह्वा) जीभ भी कभी तुझे रोग में न आ पकड़े। तू (बर्हिः) सदा वृद्धिशील रह कर (कथा) किसी प्रकार (प्रमयुः) मरणोन्मुख (स्याः) हो सकता है ? (त्वा) तुझ को (आदित्याः) ज्ञानयोगी, बालब्रह्मचारी, (वसवः) वसु ब्रह्मचारी और (इन्द्राग्नी) राजा और आचार्य ये (स्वस्तये) कल्याण के लिए (उद् भरन्तु) मृत्यु से उन्नति के पथ पर ले जावें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। आयुर्देवता। १, ५, ६, १०, ११ त्रिष्टुभः। २,३, १७,२१ अनुष्टुभः। ४,९,१५,१६ प्रस्तारपंक्तयः। त्रिपाद विराड् गायत्री । ८ विराट पथ्याबृहती। १२ त्र्यवसाना पञ्चपदा जगती। १३ त्रिपाद भुरिक् महाबृहती। १४ एकावसाना द्विपदा साम्नी भुरिग् बृहती।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Long Life

    Meaning

    Let no crushing grinding force or power ever reach you. Let no darkness assail you. Let no rough word ever come and hurt you. How can you, a yajnic soul, be ever hurtful to any one? May the Adityas, Vasus, Indra and Agni bless you to fulfilment with plenty, prosperity and all round well being.

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    Translation

    May not the crusher with terrible jaws, find you; may not the darkness. Having sacred grass (barhis) on your tongue, how can you perish ? May the old and the young sages, and the Lord resplendent and adorable, raise you up for your well-being.

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    Translation

    O patient! let not the disease which snaps the jaws hold you under its grip, let not the disease causing darkness before eyes take you under its influence, let not your tongue every be influenced by disease and let not the grass trouble you. In absence of all these troubles how should you perish?(No not anyhow). Let the twelve months of the year, eight localities of the world and all-pervading electricity and heat restore you the health and pleasure.

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    Translation

    Let not a nerve-breaking disease attack thee. Let not lockjaw attack thee. Let not dimness of eyes attack thee. May thou not suffer from a tongue disease. Ever maintaining good health, how canst thou fall a prey to death. May the Aditya learned Brahmcharis, the Vasu Brahmcharis, the king and Acharya save thee from death and lead thee to prosperity.

    Footnote

    Aditya Brahmcharies: Learned persons who observe celibacy for 48 years. Vasu Brahmcharies: Persons who study the Vedas and observe celibacy for 24 years.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १६−(मा) निषेधे (त्वा) त्वाम् (जम्भः) जभि नाशने-अच्। नाशकः (संहनुः) शॄस्वृस्निहित्रप्यसिवसिहनि०। उ० १।१०। हन हिंसागत्योः-उ। विघ्नः। मृत्युः (मा) (तमः) अन्धकारः (विदत्) विद्लृ लाभे-लुङ्। लभताम् (मा) (जिह्वा) रसना (आ) समुच्चये। (बर्हिः) बृंहेर्नलोपश्च। उ० २।१०९। बर्ह हिंसायाम्-इसि। हिंसास्वभावा (प्रमयुः) भृमृशीङ्०। उ० १।७। डुमिञ् प्रक्षेपणे-उ। प्रक्षिप्तः (कथा) केन प्रकारेण (स्याः) त्वं भवेः (उत्) ऊर्ध्वम् (त्वा) (आदित्याः) अ० १।९।१। प्रकाशमाना विद्वांसः (वसवः) श्रेष्ठपदार्थाः (भरन्तु) धारयन्तु (उत्) (इन्द्राग्नी) मेघपावकौ (स्वस्तये) सुसत्तायै ॥

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