अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 15
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - आयुः
छन्दः - प्रस्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
49
जी॒वेभ्य॑स्त्वा स॒मुदे॑ वा॒युरिन्द्रो॑ धा॒ता द॑धातु सवि॒ता त्राय॑माणः। मा त्वा॑ प्रा॒णो बलं॑ हासी॒दसुं॒ तेऽनु॑ ह्वयामसि ॥
स्वर सहित पद पाठजी॒वेभ्य॑: । त्वा॒ । स॒म्ऽउदे॑ । वा॒यु: । इन्द्र॑: । धा॒ता । द॒धा॒तु॒ । स॒वि॒ता । त्राय॑माण: । मा । त्वा॒ । प्रा॒ण: । बल॑म् । हा॒सी॒त् । असु॑म् । ते॒ । अनु॑ । ह्व॒या॒म॒सि॒ ॥१.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
जीवेभ्यस्त्वा समुदे वायुरिन्द्रो धाता दधातु सविता त्रायमाणः। मा त्वा प्राणो बलं हासीदसुं तेऽनु ह्वयामसि ॥
स्वर रहित पद पाठजीवेभ्य: । त्वा । सम्ऽउदे । वायु: । इन्द्र: । धाता । दधातु । सविता । त्रायमाण: । मा । त्वा । प्राण: । बलम् । हासीत् । असुम् । ते । अनु । ह्वयामसि ॥१.१५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य कर्त्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्य !] (त्वा) तुझको (जीवेभ्यः) जीवों के लिये (समुदे) पूरा उत्तमपन [करने] के लिये (वायुः) वायु, (इन्द्रः) मेघ और (धाता) पोषण करनेवाला, (त्रायमाणः) पालन करनेवाला (सविता) चलानेवाला सूर्य (दधातु) पुष्ट करे। (त्वा) तुझको (प्राणः) प्राण और (बलम्) बल (मा हासीत्) न छोड़े, (ते) तेरे लिये (असुम्) बुद्धि को (अनु) सदा (ह्वयामसि) हम बुलाते हैं ॥१५॥
भावार्थ
मनुष्य वायु आदि पदार्थों के यथावत् प्रयोग से निरन्तर बुद्धि बढ़ावें ॥१५॥
टिप्पणी
१५−(जीवेभ्यः) जीवानां हिताय (त्वा) (समुदे) उङ् शब्दे-क्विप्, तुक् च, पृषोदरादित्वाद् दत्वम्। सम्यगुत्कर्षाय (वायुः) (इन्द्रः) मेघः (धाता) पोषकः (दधातु) पोषयतु (त्वा) (प्राणः) आत्मबलम् (बलम्) शरीरबलम् (मा हासीत्) ओहाक् त्यागे-लुङ्। मा त्याक्षीत् (असुम्) प्रज्ञाम् (ते) तुभ्यम् (अनु) निरन्तरम् (ह्वयामसि) आह्वयामः ॥
विषय
वायु-इन्द्र-धाता-सविता-त्रायमाण
पदार्थ
१. (त्वा) = तुझे (जीवेभ्यः) = तेरे पोषणीय पुत्र-भार्या-दासादि जीवों के लिए (समुदे) = आनन्द-युक्त जीवन के निमित्त [स+मुदे] (वायुः) = गति द्वारा सब बुराइयों का हिंसन करनेवाला, (इन्द्रः) = शत्रुओं का विद्रावक, (धाता) = सबका धारक, (सविता) = सर्वोत्पादक व सर्वप्रेरक (त्रायमाण:) = रक्षक प्रभु (दधातु) = धारण करे। तू भी 'वायु' बन-गति के द्वारा बुराइयों का संहार करनेवाला बन । 'इन्द्र' जितेन्द्रिय बन, (धाता) = धारण करनेवाला, (सविता) = निर्माण के कार्यों में प्रवृत्त व (त्रायमाण:) = रक्षक बन। ये बातें ही तेरे जीवन को आनन्दमय बनाएँगी। २. स्वा-तुझे प्राण:-प्राणशक्ति व बलम् बल मा हासीत्-मत छोड़ जाएँ। ते असुम्-तेरे प्राण को अनु हयामसि-अनुकूलता से पुकारते हैं। तेरे प्राण सचमुच सब दोषों का क्षेपण करते हुए 'असु' इस अन्वर्थ नामवाले हों।
भावार्थ
हम 'वाय. इन्द्र. धाता. सविता व त्रायमाण' प्रभ का उपासन करते हुए क्रियाशील जितेन्द्रिय, धारक, निर्माण कार्यों में प्रवृत्त व रक्षक बनें। प्राण व बल हमें न छोड़ जाएँ। हमारे प्राण सब दोषों को दूर करनेवाले हों।
भाषार्थ
(जीवेभ्यः) प्राणियों के लिये (समुदे) संमोदार्थ (वायुः) वायु, (इन्द्र) मेघीय विद्युत् (धाता) धारण और पोषण करने वाला मेघ, (त्रायमाणः सविता) त्राण करता हुआ प्रातःकालीन सूर्य (त्वा) तेरी (दधातु) रक्षा करे। (त्वा) ताकि तुझे (प्राणः) प्राण तथा (बलम्) शारीरिक बल (मा) न (हासीत्) त्याग दे, इस निमित्त (ते) तेरी (असुम्) प्रज्ञा का (अनु) तदनुरूप (ह्वयामसि) हम आचार्य आह्वान करते हैं। समुदे= संमोदाय (सायण); समुदे= मोदसहित होने के लिये।
टिप्पणी
[दधातु= धारण करे; वायु आदि प्रत्येक अथवा इन सबका समुदाय। असुः प्रज्ञानाम (निघं० ३।९)। उपनीत-ब्रह्मचारी के लिये कहा है कि तू प्राणियों के मोद अर्थात् हर्ष को इन की सेवा करके बढ़ाया कर। इन्हें कष्ट न पहुंचाया कर। समुदे= संमुदे= मुद हर्षे (भ्वादिः)। ब्रह्मचारी स्वयं भी निज प्रज्ञा का प्रयोग इस निमित्त किया करे]।
विषय
दीर्घजीवन-विद्या
भावार्थ
(धाता) पालक, पोषक और (त्रायमाणः) रक्षक और (सविता) उत्पादक (वायुः) सबका प्रेरक या सर्वव्यापक (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवान् परमात्मा (त्वा) तुझको (जीवेभ्यः) अन्य तेरे आश्रय पर जीने वाले प्राणियों के लिये और (समुदे) सबके साथ आनन्द प्रसन्न रहने के लिए (त्वा दधातु) तेरा पोषण करे। (प्राणः) प्राण और (बलम्) बल (त्वा) तुझे (मा हासीत्) न छोड़ें। (ते असुम्) तेरे प्राण और बलको हम (अनु) अनुकूल रूप से (ह्वयामसि) बुलाते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। आयुर्देवता। १, ५, ६, १०, ११ त्रिष्टुभः। २,३, १७,२१ अनुष्टुभः। ४,९,१५,१६ प्रस्तारपंक्तयः। त्रिपाद विराड् गायत्री । ८ विराट पथ्याबृहती। १२ त्र्यवसाना पञ्चपदा जगती। १३ त्रिपाद भुरिक् महाबृहती। १४ एकावसाना द्विपदा साम्नी भुरिग् बृहती।
इंग्लिश (4)
Subject
Long Life
Meaning
For all living beings in this vast world of flux, may the winds, the clouds, sustaining nature and the Lord Divine, the inspiring sun, all protector Spirit of the universe help and maintain you at your best, may your strength and pranic energy never forsake you. We invoke and call upon you and your life’s vitality.
Translation
May the omnipresent, the resplendent, the sustainer, and the protecting impeller Lord restore -you to communion with the living beings. May not your vital breath, nor your strength forsake you. We hereby call your life back to you.
Translation
May the wind, electricity, the sun which is best preserving source of life be the source and means of your pleasure and communion with living people protecting you from all troubles. Let not the vitality and vigor leave you deprived of them. I, the physician therefore, restore you the consciousness and intelligence, O man!
Translation
May the All-pervading, Most Exalted, Nourishing, Protecting God, the Creator, rear thee for lending joy and shelter to others. May not thy vigor or thy breath for sake thee. We invoke intellect for thee.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१५−(जीवेभ्यः) जीवानां हिताय (त्वा) (समुदे) उङ् शब्दे-क्विप्, तुक् च, पृषोदरादित्वाद् दत्वम्। सम्यगुत्कर्षाय (वायुः) (इन्द्रः) मेघः (धाता) पोषकः (दधातु) पोषयतु (त्वा) (प्राणः) आत्मबलम् (बलम्) शरीरबलम् (मा हासीत्) ओहाक् त्यागे-लुङ्। मा त्याक्षीत् (असुम्) प्रज्ञाम् (ते) तुभ्यम् (अनु) निरन्तरम् (ह्वयामसि) आह्वयामः ॥
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