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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 3
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - आयुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
    77

    इ॒ह तेऽसु॑रि॒ह प्रा॒ण इ॒हायु॑रि॒ह ते॒ मनः॑। उत्त्वा॒ निरृ॑त्याः॒ पाशे॑भ्यो॒ दैव्या॑ व॒चा भ॑रामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒ह । ते॒ । असु॑: । इ॒ह । प्रा॒ण: । इ॒ह । आयु॑: । इ॒ह । ते॒ । मन॑: । उत् । त्वा॒ । नि:ऽऋ॑त्या: । पाशे॑भ्य: । दैव्या॑ । वा॒चा । भ॒रा॒म॒सि॒ ॥१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इह तेऽसुरिह प्राण इहायुरिह ते मनः। उत्त्वा निरृत्याः पाशेभ्यो दैव्या वचा भरामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इह । ते । असु: । इह । प्राण: । इह । आयु: । इह । ते । मन: । उत् । त्वा । नि:ऽऋत्या: । पाशेभ्य: । दैव्या । वाचा । भरामसि ॥१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्य कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (इह) इस [परमेश्वर] में (ते) तेरी (असुः) बुद्धि, (इह) इस में (प्राणः) प्राण, (इह) इसमें (आयुः) जीवन, (इह) इसमें (ते) तेरा (मनः) मन [हो]। (त्वा) तुझको (निर्ऋत्याः) महा विपत्ति [अविद्या] के (पाशेभ्यः) जालों से (दैव्या) दैवी (वाचा) वाणी [वेदविद्या] के साथ (उत्) ऊपर (भरामसि) हम धरते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमात्मा की आज्ञापालन में सब इन्द्रियों सहित आत्मसमर्पण करें, यही विपत्तियों से बचने के लिये वेद का उपदेश है ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(इह) अस्मिन् परमेश्वरे (ते) तव (असुः) प्रज्ञा-निघ० ३।९। (इह) (प्राणः) जीवनसाधनं वायुः (इह) (आयुः) जीवनम् (इह) (ते) (मनः) अन्तःकरणम् (उत्) ऊर्ध्वम् (त्वा) (निर्ऋत्याः) अ० २।१०।१। कृच्छापत्तेः। अविद्यायाः (पाशेभ्यः) जालेभ्यः (दैव्या) देव-अण्, ङीप्। देवात् परमेश्वरात् प्राप्तया (वाचा) वाण्या (भरामसि) धरामः ॥

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    विषय

    'असु-प्राण-आयु व मन'

    पदार्थ

    १. हे आयुष्काम पुरुष! (इह ते असु:) = यहाँ-इस शरीर में तेरा यह असु' है [अस् क्षेपणे] सब रोगों को परे फेंकनेवाली शक्ति है। (इह प्राण:) = यहाँ तुझे प्राणित करनेवाला यह प्राण है। 'प्राण-अपान-उदान-व्यान व समान' के रूप में यह शरीर के सब व्यवहारों को ठीक से चलानेवाला है। (इह आयुः) = यहाँ तेरा यह जीवन है 'शतायुर्वं पुरुषः' सौ वर्ष के लिए नियत तेरा जीवन है। (इह ते मन:) = यहाँ तेरा यह मन है-यह तेरा मन 'ज्योतिर्षा ज्योति:' ज्योतियों की भी ज्योति है-'येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम्' यह मन भूत, भुवन, भविष्यत् का परिगृहीता व अमृत है। २. इन सबके होते हुए रोगादि सम्भव ही कैसे हो सकते हैं? हम (दैव्या वाचा) = देव के द्वारा दी गई वेदवाणी के द्वारा (त्वा) = तुझे (निर्ऋत्याः पाशेभ्य:) = दुर्गति की बन्धन-रज्जुओं से (उत् भरामसि) = ऊपर उठाते हैं। वेदज्ञान द्वारा 'असु.प्राण,आयु व मन' का ठीक ज्ञान प्राप्त करता हुआ तू दुर्गति के पाशों से नहीं जकड़ा जा सकता।

    भावार्थ

    हम वेदवाणी के द्वारा शरीरस्थ 'असु,प्राण,आयु व मन' का ठीक ज्ञान प्राप्त करके उनके उचित विनियोग व शक्तिवर्धन से दुर्गति के पाशों में जकड़े जाने से अपने को बचाएँ।

     

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    भाषार्थ

    (इह) इस पृथिवी में (ते) तेरी (असुः) प्रज्ञा हो, (इह) इसमें (प्राणः) प्राणापान किया हो, (इह) इसमें (आयुः) पूर्ण आयु हो, (इह) इसमें (ते) तेरा (मनः) मन हो। (निर्ऋत्याः) कृच्छापत्ति के (पाशेभ्यः) फन्दों से (देव्या वाचा) दिव्य वेदवाणी के अनुसार (त्वा) तेरा (उत् भरामसि) हम उद्धार करते हैं।

    टिप्पणी

    [आयुष्काम व्यक्ति, निज ज्ञान तथा मन द्वारा दृढ़ निश्वय तथा संकल्प दीर्घजीवन के लिये करे तो वह दीर्घायु प्राप्त कर सकता है, और कष्टों से मुक्त रह सकता है। असुः प्रज्ञानाम (निघं० ३।९)]।

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    विषय

    दीर्घजीवन-विद्या

    भावार्थ

    मृत्यु से दूर होने का उपाय। हे पुरुष ! (इह) इस शरीर में (ते) तेरे (असुः) जीवन के बाधक कारणों को दूर करने की भी शक्ति विद्यमान है, और (इह प्राणः) इसी शरीर में उत्कृष्ट रूप से प्राण लेने की शक्ति भी है, और (इह आयुः) इसी में तेरी आयु, दीर्घजीवन है, (इह ते मनः) और यहीं तेरा मननशील अन्तःकरण विद्यमान है। तो सब जीवन के साधन यहां ही इस शरीर में विद्यमान हैं तो फिर केवल अज्ञान से तू उन साधनों का उपयोग नहीं करता, इसलिए (त्वा) तुझ पुरुष को हम विद्वान् लोग (देव्या वाचा) देव, परमेश्वर की ज्ञानमत्री वाणी वेदोपदेश से (निर्ऋत्याः) सर्वथा दुःख देने वाली तामस प्रवृत्ति या मृत्यु या अज्ञान या अविद्या के (पाशेभ्यः) फांसों से (उत् भरामसि) ऊपर उठाते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। आयुर्देवता। १, ५, ६, १०, ११ त्रिष्टुभः। २,३, १७,२१ अनुष्टुभः। ४,९,१५,१६ प्रस्तारपंक्तयः। त्रिपाद विराड् गायत्री । ८ विराट पथ्याबृहती। १२ त्र्यवसाना पञ्चपदा जगती। १३ त्रिपाद भुरिक् महाबृहती। १४ एकावसाना द्विपदा साम्नी भुरिग् बृहती।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Long Life

    Meaning

    Here in body be your living vitality, here your pranic energies, here your health and age, here your mind, all abide in strength and joy. We all, gifts of the Immortal, with the Voice Divine, protect you from the snares of mortality and sustain you in the happy state.

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    Translation

    Here is your life, here your vital breath; here the lifespan, and here is your mind. With the divine speech, we deliver and bear you up from the bonds of perdition (nirrti).

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    Translation

    O man! let there reside intelligence in this body of yours, let there reside and work the vital air in it, let the mind reside and play its part in this body, as I, through the Knowledge of Vedic speech or the celestial lightning creating ozone save you from the bonds of destruction.

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    Translation

    O man, dedicate thy intellect, thy breath, thy life, thy soul to God. Through divine utterance of the Vedas we raise thee from the bonds of ignorance.

    Footnote

    We' refers to learned persons.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(इह) अस्मिन् परमेश्वरे (ते) तव (असुः) प्रज्ञा-निघ० ३।९। (इह) (प्राणः) जीवनसाधनं वायुः (इह) (आयुः) जीवनम् (इह) (ते) (मनः) अन्तःकरणम् (उत्) ऊर्ध्वम् (त्वा) (निर्ऋत्याः) अ० २।१०।१। कृच्छापत्तेः। अविद्यायाः (पाशेभ्यः) जालेभ्यः (दैव्या) देव-अण्, ङीप्। देवात् परमेश्वरात् प्राप्तया (वाचा) वाण्या (भरामसि) धरामः ॥

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