अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 18
अ॒यं दे॑वा इ॒हैवास्त्व॒यं मामुत्र॑ गादि॒तः। इ॒मं स॒हस्र॑वीर्येण मृ॒त्योरुत्पा॑रयामसि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । दे॒वा॒: । इ॒ह । ए॒व । अ॒स्तु॒ । अ॒यम् । मा । अ॒मुत्र॑ । गा॒त् । इ॒त: । इ॒मम् । स॒हस्र॑ऽवीर्येण । मृ॒त्यो: । उत् । पा॒र॒या॒म॒सि॒ ॥१.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं देवा इहैवास्त्वयं मामुत्र गादितः। इमं सहस्रवीर्येण मृत्योरुत्पारयामसि ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । देवा: । इह । एव । अस्तु । अयम् । मा । अमुत्र । गात् । इत: । इमम् । सहस्रऽवीर्येण । मृत्यो: । उत् । पारयामसि ॥१.१८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य कर्त्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(देवाः) हे विजय चाहनेवाले पुरुषो ! (अयम्) यह [शूर पुरुष] (इह) यहाँ [धर्म्मात्माओं में] (एव) ही (अस्तु) रहे, (अयम्) यह (अमुत्र) वहाँ [दुष्टों में] (इतः) यहाँ से [सत्समाज से] (मा गात्) न जावे। (इमम्) इस [पुरुष] को (सहस्रवीर्येण) सहस्रों प्रकार के सामर्थ्य के साथ (मृत्योः) मृत्यु से (उत्) भले प्रकार (पारयामसि) हम पार लगाते हैं ॥१८॥
भावार्थ
मनुष्य एक दूसरे को दुष्कर्मों से बचाकर धर्म में प्रवृत्त कर विज्ञान शिल्प आदि द्वारा अनेक प्रकार बल बढ़ाकर मृत्यु अर्थात् दरिद्रता आदि दुःखों से सुरक्षित रहें ॥१८॥
टिप्पणी
१८−(अयम्) शूरपुरुषः (देवाः) हे विजिगीषवः (इह) धर्मात्मसु (एव) निश्चयेन (अस्तु) भवतु (मा गात्) न गच्छेत् (अमुत्र) तत्र। दुष्टेषु (इतः) अमरलोकात्। सत्समाजात् (इमम्) सत्पुरुषम् (सहस्रवीर्येण) अपरिमितसामर्थ्येन (मृत्योः) दरिद्रतादिदुःखात् (उत्) उत्कर्षेण (पारयामसि) पार कर्मसमाप्तौ। यद्वा, पॄ पालनपूरणयोः। पारयामः। तारयामः। पालयामः ॥
विषय
दीर्घजीवन के दो सूत्र
पदार्थ
१. हे (देवा:) = सूर्यादि देवो! (अयम्) = यह पुरुष (इह एव अस्तु) = यहाँ-इस शरीर में ही हो, (इत:) = यहाँ से वह (अमुत्र मा गात्) = परलोक में मत चला जाए। देवों की अनुकूलता में इसका स्वास्थ्य ठीक बना रहे। २. (इमम्) = इसे (सहस्त्रवीर्येण) [सहस्र सहस्वत्-नि०] = रोगों का मर्षण करनेवाले वीर्य के द्वारा-शरीर में ही वीर्यरक्षण के द्वारा (मृत्योः उत् पारयामसि) = मृत्यु से पार ले-चलते हैं। शरीर में सुरक्षित वीर्य रोगकृमि-विनाश के द्वारा दीर्घजीवन का साधन बनता है।
भावार्थ
दीर्घजीवन के दो सूत्र हैं-[क] सूर्यादि देवों के सम्पर्क में जीवन बिताना और [ख] शरीर में वीर्यशक्ति का रक्षण करना।
भाषार्थ
(देवाः) हे आदित्य आदि देवो ! [मन्त्र १६] (अयम्) यह [उपनीत माणवक] (इह एव अस्तु) यहां ही रहे, (अयम्) यह (इतः) इस स्थान से (अमुत्र) उस मृत्यु के स्थान में (मा गात्) न जाय। (इमम्) इसे (सहस्रवीर्येण) सहस्रवीर्य द्वारा (मृत्योः) मृत्यु से (उत्पारयामसि) हम पार कर देते हैं।
टिप्पणी
["सहस्रवीर्य" नामक ओषधि है या इसका अभिप्राय है "अपरिमित सामर्थ्य"। आचार्यों के अपरिमित सामर्थ्यों का निर्देश हुआ है, ये आध्यात्मिक तथा लौकिक सामर्थ्य हैं। यथा (अथर्व० ४।१३।५-७)]।
विषय
दीर्घजीवन-विद्या
भावार्थ
हे (देवाः) विद्वान् पुरुषो ! (अयम्) यह पुरुष (इह एव अस्तु) इस देह में ही पूर्ण आयु तक रहे। (इतः) इस देह को छोड़कर वह (अमुत्र) दूसरे लोक में (मा गात्) शतवर्ष के पूर्व न जावे। हम विद्वान् लोग (सहस्र-वीर्येण) हजारों उपायों से, अपरिमित सामर्थ्यप्रद विधियों से, बलयुक्त, सहनशील, वीर्यरक्षा ब्रह्मचर्य के उपाय से इस पुरुष को (मृत्योः) मृत्यु से (उत् पारयामसि) ऊंचा उठावें, मृत्यु से बचावें।
टिप्पणी
सहस्रं सहस्वद् इति निरुक्रम्।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। आयुर्देवता। १, ५, ६, १०, ११ त्रिष्टुभः। २,३, १७,२१ अनुष्टुभः। ४,९,१५,१६ प्रस्तारपंक्तयः। त्रिपाद विराड् गायत्री । ८ विराट पथ्याबृहती। १२ त्र्यवसाना पञ्चपदा जगती। १३ त्रिपाद भुरिक् महाबृहती। १४ एकावसाना द्विपदा साम्नी भुरिग् बृहती।
इंग्लिश (4)
Subject
Long Life
Meaning
O devas, generous and brilliant powers of nature and humanity, let this man be and prosper here only among us. Let him not go anywhere else. We strengthen him with a thousandfold energy and immunity against the fear of death.
Translation
O bounties Of nature, may this man remain just here. May he not go yonder from here. With this thousand-fold potent medicine, we bear him up out of death.
Translation
O learned men ! let this patient remain alive here and let him not depart from here to other world. I, the physician rescue this man from death by the application of the medicine endowed with thousand powers and potencies.
Translation
O learned persons, let this man remain here in this world, let him not go to yonder world. We rescue him from death with a thousand devices.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१८−(अयम्) शूरपुरुषः (देवाः) हे विजिगीषवः (इह) धर्मात्मसु (एव) निश्चयेन (अस्तु) भवतु (मा गात्) न गच्छेत् (अमुत्र) तत्र। दुष्टेषु (इतः) अमरलोकात्। सत्समाजात् (इमम्) सत्पुरुषम् (सहस्रवीर्येण) अपरिमितसामर्थ्येन (मृत्योः) दरिद्रतादिदुःखात् (उत्) उत्कर्षेण (पारयामसि) पार कर्मसमाप्तौ। यद्वा, पॄ पालनपूरणयोः। पारयामः। तारयामः। पालयामः ॥
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