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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 4
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - आयुः छन्दः - प्रस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
    173

    उत्क्रा॒मातः॑ पुरुष॒ माव॑ पत्था मृ॒त्योः पड्वी॑षमवमु॒ञ्चमा॑नः। मा च्छि॑त्था अ॒स्माल्लो॒काद॒ग्नेः सूर्य॑स्य सं॒दृशः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । क्रा॒म॒ । अत॑: । पु॒रु॒ष॒ । मा । अव॑ । प॒त्था॒: । मृ॒त्यो: । पड्वी॑शम् । अ॒व॒ऽमु॒ञ्चमा॑न: । मा । छि॒त्था॒: । अ॒स्मात् । लो॒कात् । अ॒ग्ने: । सूर्य॑स्य । स॒म्ऽदृश॑: ॥१.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्क्रामातः पुरुष माव पत्था मृत्योः पड्वीषमवमुञ्चमानः। मा च्छित्था अस्माल्लोकादग्नेः सूर्यस्य संदृशः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । क्राम । अत: । पुरुष । मा । अव । पत्था: । मृत्यो: । पड्वीशम् । अवऽमुञ्चमान: । मा । छित्था: । अस्मात् । लोकात् । अग्ने: । सूर्यस्य । सम्ऽदृश: ॥१.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्य कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (पुरुष) हे पुरुष ! (अतः) इस [वर्तमान दशा] से (उत् क्राम) आगे डग बढ़ा, (मृत्योः) मृत्यु [अज्ञान, निर्धनता आदि] की (पड्वीशम्) बेड़ी को (अवमुञ्चमानः) छोड़ता हुआ (मा अव पत्थाः) मत नीचे गिर। (अस्मात् लोकात्) इस लोक [वर्तमान अवस्था] से, (अग्नेः) अग्नि [शरीर और आत्मबल] से, और (सूर्यस्य) सूर्य के (संदृशः) दर्शन [नियम] से (मा च्छित्थाः) मत अलग हो ॥४॥

    भावार्थ

    मनुष्य अपनी वर्तमान दशा से आगे बढ़ने के लिये नित्य पुरुषार्थ करे ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(उत्) ऊर्ध्वम् (क्राम) क्रमु पादविक्षेपे। पादं विक्षिप (अतः) वर्तमानाया दशायाः (पुरुष) मनुष्य (मा अव पत्थाः) पद गतौ-लुङ्। एकाच उपदेशेऽनुदात्तात्। पा० ७।२।१०। इट्प्रतिषेधः। झलो झलि। पा० ८।२।२६। सिचो लोपः। अवपतनं मा कार्षीः (मृत्योः) अज्ञाननिर्धनतादिदुःखस्य (पड्वीशम्) अ० ६।९६।२। पाशप्रवेशम् (अवमुञ्चमानः) विमोचयन् (माच्छित्थाः) छिदेर्लुङि पूर्ववद् इट्प्रतिषेधः। छिन्नो मा भूः (अस्मात्) (लोकात्) अवस्थायाः (अग्नेः) शरीरात्मबलादित्यर्थः (सूर्यस्य) आदित्यस्य (संदृशः) दृशेः क्विप्। संदर्शनात् ॥

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    विषय

    वेदज्ञान, अग्रिहोत्र, सूर्यकिरण-सेवन

    पदार्थ

    १. हे (पुरुष) = इस देवनगरी में निवास करनेवाले पुरुष! (अत: उत् क्राम) = वेदज्ञान द्वारा इस मृत्युपाश-समूह से तु ऊपर उठ। (मा अवपत्था:) = तु अवनति-गर्त में गिरनेवाला न हो। (मृत्योः पड्बीशम्) = मृत्यु के पादबन्धन पाश को (अवमुञ्चमान:) = तू अपने से सुदूर विच्छिन्न करनेवाला हो। २. (अस्मात् लोकात्) = गत मन्त्र में 'दैव्या वाचा' शब्दों से वर्णित वेदज्ञान के प्रकाश से [लोक आलोक] (मा च्छित्था:) = तू पृथक् मत हो। (अग्नेः संदृश:) = अग्नि के सन्दर्शन से तू पृथक न हो-नित्य अग्निहोत्र का दर्शन करनेवाला बन तथा (सूर्यस्य) [संदृशः] = सूर्यदर्शन से पृथक् मत हो–सूर्यकिरणों के सम्पर्क में रहनेवाला बन।

    भावार्थ

    दीर्घजीवन के लिए आवश्यक है कि हम [क] वेदज्ञान प्राप्त करें,[ख] नियम से अग्निहोत्र करें, [ग] सूर्य-किरणों के सम्पर्क में जीवन-यापन करें।

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    भाषार्थ

    (पुरुष) हे पुरुष ! (मृत्योः) मृत्यु के (पड्वीशम्) पादबन्धन को (अवमुञ्चमानः) छोड़ता हुआ (अतः) इस अवस्था से (उत्क्राम) उन्नति की ओर तू पग बढ़ा, (मा अवपत्थाः) नीचे की ओर अपना पतन न कर। (अस्मात् लोकात्) इस पृथिवीलोक से, तथा (अग्नेः सूर्यस्य) अग्नि और सूर्य के (संदृशः) सम्यक् दर्शन से (मा छित्थाः) तू अपना सम्बन्ध न काट।

    टिप्पणी

    [उत्क्राम= उत् + क्रमु पादविक्षेपे। पड्वीशम् = पैरों में प्रविष्ट पाश बन्धन बेड़ियां। मन्त्र में निराश हुए पुरुष को निराशा से मुक्त करने के लिये प्रोत्साहित किया है]।

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    विषय

    दीर्घजीवन-विद्या

    भावार्थ

    हे (पुरुष) इस देहरूप पुरी में वास करनेवाले जीव ! (अतः) इस अविद्या के पाश से तू (उत् क्राम) ऊपर उठ, (मा अव पत्थाः) नीचे मत गिर। (मृत्योः) मृत्यु की (पड्वीशम्) पैरों में बँधी बेड़ियों को (अवमुञ्चमानः) छुड़ाता हुआ भी (अस्मात्) इस (लोकात्) लोक या जीवन से (मा छित्थाः) सम्बन्ध मत तोड़, जीवन से वियुक्त मत हो, और (अग्नेः) अग्नि, आचार्य और (सूर्यस्य च) सूर्य, सब के प्रेरक परमेश्वर की शक्तियों का (सं दृशः) भली प्रकार दर्शन कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। आयुर्देवता। १, ५, ६, १०, ११ त्रिष्टुभः। २,३, १७,२१ अनुष्टुभः। ४,९,१५,१६ प्रस्तारपंक्तयः। त्रिपाद विराड् गायत्री । ८ विराट पथ्याबृहती। १२ त्र्यवसाना पञ्चपदा जगती। १३ त्रिपाद भुरिक् महाबृहती। १४ एकावसाना द्विपदा साम्नी भुरिग् बृहती।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Long Life

    Meaning

    O man, rise up high from here, never move downwards. Rise, breaking yourself free from the fetters of death. Never sever yourself from this beautiful world, light of the sun and the vital warmth of the fire that life is.

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    Translation

    Move upwards from here, O man; being released from the fetters of death, may you not sink lower. May you not be severed from this world, from the view of fire and the Sun.

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    Translation

    O man! rise-up and decline not downward, casting away the fetters of death, sever not your connection with this world and be devoid of the light of Sun and fire.

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    Translation

    Up from thy present position, O soul, rise! sink not downward, casting away the fetters of ignorance and poverty that hold thee. Be not parted from this world, enjoy long the sight of your preceptor (Guru) and God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(उत्) ऊर्ध्वम् (क्राम) क्रमु पादविक्षेपे। पादं विक्षिप (अतः) वर्तमानाया दशायाः (पुरुष) मनुष्य (मा अव पत्थाः) पद गतौ-लुङ्। एकाच उपदेशेऽनुदात्तात्। पा० ७।२।१०। इट्प्रतिषेधः। झलो झलि। पा० ८।२।२६। सिचो लोपः। अवपतनं मा कार्षीः (मृत्योः) अज्ञाननिर्धनतादिदुःखस्य (पड्वीशम्) अ० ६।९६।२। पाशप्रवेशम् (अवमुञ्चमानः) विमोचयन् (माच्छित्थाः) छिदेर्लुङि पूर्ववद् इट्प्रतिषेधः। छिन्नो मा भूः (अस्मात्) (लोकात्) अवस्थायाः (अग्नेः) शरीरात्मबलादित्यर्थः (सूर्यस्य) आदित्यस्य (संदृशः) दृशेः क्विप्। संदर्शनात् ॥

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