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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 6
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - आयुः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
    157

    उ॒द्यानं॑ ते पुरुष॒ नाव॒यानं॑ जी॒वातुं॑ ते॒ दक्ष॑तातिं कृणोमि। आ हि रोहे॒मम॒मृतं॑ सु॒खं रथ॒मथ॒ जिर्वि॑र्वि॒दथ॒मा व॑दासि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त्ऽयान॑म् । ते॒ । पु॒रु॒ष॒ । न । अ॒व॒ऽयान॑म् । जी॒वातु॑म् । ते॒ । दक्ष॑ऽतातिम् । कृ॒णा॒मि॒ । आ । हि । रोह॑ । इ॒मम् । अ॒मृत॑म् । सु॒ऽखम् । रथ॑म् । अथ॑ । जिर्वि॑: । वि॒दथ॑म् । आ । व॒दा॒सि॒ ॥१.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उद्यानं ते पुरुष नावयानं जीवातुं ते दक्षतातिं कृणोमि। आ हि रोहेमममृतं सुखं रथमथ जिर्विर्विदथमा वदासि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्ऽयानम् । ते । पुरुष । न । अवऽयानम् । जीवातुम् । ते । दक्षऽतातिम् । कृणामि । आ । हि । रोह । इमम् । अमृतम् । सुऽखम् । रथम् । अथ । जिर्वि: । विदथम् । आ । वदासि ॥१.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्य कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (पुरुष) हे पुरुष ! (ते) तेरा (उद्यानम्) चढ़ाव [होवे], (न)(अवयानम्) गिराव, (ते) तेरे लिये (जीवातुम्) जीविका और (दक्षतातिम्) बल [योग्यता] (कृणोमि) मैं करता हूँ। (हि) अवश्य (इमम्) इस (अमृतम्) अमर [सनातन], (सुखम्) सुखदायक (रथम्) रथ पर (आ रोह) चढ़ जा [उपदेश मान], (अथ) फिर (जिर्विः) स्तुतियोग्य [होकर] तू (विदथम्) विचारसमाज में (आ वदासि) भाषण कर ॥६॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य ईश्वराज्ञा और गुरुशिक्षा से विघ्नों को हटाकर आगे बढ़ते हैं, वे संसार में स्तुति पाकर सभाओं के अधिष्ठाता होते हैं ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(उद्यानम्) ऊर्ध्वगमनम् (ते) तव (पुरुषः) (न) निषेधे (अवयानम्) अधः पतनम् (जीवातुम्) अ० ६।५।२। जीविकम्-निरु० ११।११। (ते) तव (दक्षतातिम्) सर्वदेवात्तातिल्। पा० ४।४।१४२। बाहुलकात्, दक्षादपि तातिल् स्वार्थे। दक्षं बलं योग्यताम् (कृणोमि) करोमि (आ रोह) अधितिष्ठ (हि) अवश्यम् (इमम्) पूर्वोक्तम् (अमृतम्) सनातनम् (सुखम्) सुखपदम् (रथम्) यानम्। उपदेशमित्यर्थः (अथ) अनन्तरम् (जिर्विः) जॄशॄस्तॄजागृभ्यः क्विन्। उ० ४।५४। जॄ स्तुतौ-क्विन्, छान्दसो ह्रस्वः। जरा स्तुतिर्जरतेः स्तुतिकर्मणः-निरु० १०।८। जीर्विः। स्तुत्यः (विदथम्) अ० १।१३।४। विद विचारणे-अथ, ङित्। विचारसमाजम्। यज्ञम्। निघ० ३।१७। (आ वदासि) लेटि रूपम्। व्यक्तं भाषय ॥

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    विषय

    उद्यानम्, न अवयानम्

    पदार्थ

    १. हे (पुरुष) = इस देवपुरी में निवास करनेवाले पुरुष! (ते उद्यानम्) = तेरा उद्गमन-उन्नति ही हो, (न अवयानम्) = कभी तेरा अधोगमन-अवनति न हो। (ते) = तेरे लिए (जीवातुम्) = जीवन औषध तथा (दक्षतातिम्) = बल की वृद्धि (कृणोमि) = करता हूँ। तेरे लिए नीरोगता तथा शक्ति प्राप्त कराता हूँ। २. तू (अमृतम्) = अमरणधर्मा-रोगरहित (सुखम्) = [सु-ख] उत्तम इन्द्रियोंवाले (रथम्) = इस शरीर-रथ पर (आरोह) = आरोहण कर, (अथ) = अब उत्तम जीवन-यात्रा के अन्तिम भाग में (जिर्वि:) = पूर्ण अवस्था-बड़ी उम्र को प्रास हुआ तू (विदथम् आवदासि)=- समन्तात् ज्ञान का प्रचार करनेवाला हो, अपने ज्ञान व अनुभवों से औरों को लाभ पहुँचानेवाला हो।

    भावार्थ

    हम ऊपर उठें, अवनत न हों। जीवन-शक्ति व बल प्राप्त करें। नीरोग, स्वस्थ इन्द्रियोंवाले शरीर-रथ में जीवन-यात्रा करते हुए जीवन के अन्तिम भाग में ज्ञान का प्रसार करें।

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    भाषार्थ

    (पुरुष) हे पुरुष ! (ते) तेरा (उद्यानम्) मार्ग ऊपर की ओर है, (न अवयानम्) नीचली ओर मार्ग नहीं (ते) तेरे (जीवातुम्) जीवन को (दक्षतातिम्) वृद्धि का विस्तार करने वाला (कृणोमि) मैं करता हूं। (इमम्) इस (अमृतम्) दीर्घजीवी या मोक्ष के साधनभूत, (सुखम्) सुखदायक (रथम्) शरीर-रथ पर (हि) निश्चयपूर्वक (आ रोह) आरोहण कर (अथ) और (जिर्विः) जीर्ण होकर, बूढ़ा हो कर (विदथम्) ज्ञानोपदेश (आ वदासि) सर्वत्र किया कर।

    टिप्पणी

    [जीवातुम् = जीवनम् (उणा० १।७८; दयानन्द)। दक्षतातिम्= दक्ष वृद्धौ (भ्वादिः) + तातिम् (तनु विस्तारे, तनादिः) कृणोमि= यह कथन परमेश्वर अथवा आचार्य का है (मन्त्र १) रथम्= "शरीरं रथमेव तु" (कठ० उप० १।३।३)]।

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    विषय

    दीर्घजीवन-विद्या

    भावार्थ

    हे (पुरुष) जीव ! सनुष्य ! (ते) तेरी (उद्यानम्) ऊपर की गति हो, तू अपने जीवन में ऊपर को उठ, (न अव-यानम्) नीचे को मत गिर। (ते) तेरे (जीवातुम्) जीवन को भी मैं (दक्षतातिम्) बल से युक्त (कृणोमि) करता हूं। तू (इमम्) इस (अमृतम्) अमृतरूप सौ वर्ष के जीवन से युक्त (रथम्) रमण साधन, भोगों के आयतन रूप इस देह को (सुखम्) सुखपूर्वक (हि) निश्चय से (आ रोह) धारण कर, और तू (जिर्विः) जीर्ण होकर बुढ़ापे में भी (विदथम्) अपने जीवन के ज्ञानमय अनुभव को (आवदासि) सर्वत्र उपदेश कर।

    टिप्पणी

    ऋग्वेदेषु ‘जिव्रि’ शब्द उपलभ्यते। ‘तौग्रयो न जिव्रिः’ [ ऋ० १ । १८०। १५ ]।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। आयुर्देवता। १, ५, ६, १०, ११ त्रिष्टुभः। २,३, १७,२१ अनुष्टुभः। ४,९,१५,१६ प्रस्तारपंक्तयः। त्रिपाद विराड् गायत्री । ८ विराट पथ्याबृहती। १२ त्र्यवसाना पञ्चपदा जगती। १३ त्रिपाद भुरिक् महाबृहती। १४ एकावसाना द्विपदा साम्नी भुरिग् बृहती।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Long Life

    Meaning

    O man, up and onwards is your path in life, not downward. So for your life I give you the vigour and the art and expertise of living long and healthy. Come and ascend this chariot of immortal bliss, and as you grow in age and experience, speak of the knowledge of life for other’s good.

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    Translation

    Let upward going be for you, not downward. I give you strength for living long. Do ascend this pleasing chariot of immortality. Thereafter in your old age, may you be addressing the assembly.

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    Translation

    O man! rising upward be your aim and method, not declining downward. I, the teacher or physician inspires life and vigor into you. O man! ascend this bodily chariot of immortality with pleasure and comfort and enjoying full life preach to others the knowledge attained through experience.

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    Translation

    Upward must be thy way, O soul, not downward: with life and mental vigor I endow thee. Ascend this bodily car, the giver of deathless joy; then preach knowledge to humanity in old age!

    Footnote

    “I” refers to God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(उद्यानम्) ऊर्ध्वगमनम् (ते) तव (पुरुषः) (न) निषेधे (अवयानम्) अधः पतनम् (जीवातुम्) अ० ६।५।२। जीविकम्-निरु० ११।११। (ते) तव (दक्षतातिम्) सर्वदेवात्तातिल्। पा० ४।४।१४२। बाहुलकात्, दक्षादपि तातिल् स्वार्थे। दक्षं बलं योग्यताम् (कृणोमि) करोमि (आ रोह) अधितिष्ठ (हि) अवश्यम् (इमम्) पूर्वोक्तम् (अमृतम्) सनातनम् (सुखम्) सुखपदम् (रथम्) यानम्। उपदेशमित्यर्थः (अथ) अनन्तरम् (जिर्विः) जॄशॄस्तॄजागृभ्यः क्विन्। उ० ४।५४। जॄ स्तुतौ-क्विन्, छान्दसो ह्रस्वः। जरा स्तुतिर्जरतेः स्तुतिकर्मणः-निरु० १०।८। जीर्विः। स्तुत्यः (विदथम्) अ० १।१३।४। विद विचारणे-अथ, ङित्। विचारसमाजम्। यज्ञम्। निघ० ३।१७। (आ वदासि) लेटि रूपम्। व्यक्तं भाषय ॥

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