अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 16
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - आयुः
छन्दः - प्रस्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
मा त्वा॑ ज॒म्भः संह॑नु॒र्मा तमो॑ विद॒न्मा जि॒ह्वा ब॒र्हिः प्र॑म॒युः क॒था स्याः॑। उत्त्वा॑दि॒त्या वस॑वो भर॒न्तूदि॑न्द्रा॒ग्नी स्व॒स्तये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठमा । त्वा॒ । ज॒म्भ: । सम्ऽह॑नु: । मा । तम॑: । वि॒द॒त् । मा । जि॒ह्वा । आ । ब॒र्हि: । प्र॒ऽम॒यु: । क॒था । स्या॒: । उत् । त्वा॒ । आ॒दि॒त्या: । वस॑व: । भ॒र॒न्तु॒ । उत् । इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑ । स्व॒स्तये॑ ॥१.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
मा त्वा जम्भः संहनुर्मा तमो विदन्मा जिह्वा बर्हिः प्रमयुः कथा स्याः। उत्त्वादित्या वसवो भरन्तूदिन्द्राग्नी स्वस्तये ॥
स्वर रहित पद पाठमा । त्वा । जम्भ: । सम्ऽहनु: । मा । तम: । विदत् । मा । जिह्वा । आ । बर्हि: । प्रऽमयु: । कथा । स्या: । उत् । त्वा । आदित्या: । वसव: । भरन्तु । उत् । इन्द्राग्नी इति । स्वस्तये ॥१.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 16
विषय - जम्भ, संहनु, तमस, जिह्वा व बहि' का शिकार न होना
पदार्थ -
१. (मा) = मत (त्या) = तुझे (जम्भ:) = [जम्भनं Sexual intercourse] काम-विलास (विदत्) = प्रात करे। तू कामोपभोग में न फंस जाए, (संहनुः) = क्रोध में दाँतों का कटकटाना [Clashing] भी मत प्रास हो-तू एकदम क्रोध में आपा न खो बैठे। (मा तमः) = [विदत्]-अज्ञानान्धकार भी तुझे प्राप्त न हो। (मा जिह्वा) = जिह्वा तुझे प्राप्त न करे, अर्थात् तू बहुत खाने की वृत्तिवाला न बन जाए। (बहि:) [बह to speak] = तू बहुत बोलनेवाला न हो जाए। ऐसा होने पर (प्रमयुः कथा स्या:) = [प्रगतहिंसः] हिंसा को प्राप्त न होनेवाला तू कैसे हो सकता है? 'काम, क्रोध, अज्ञान, अतिभक्षण व अतिभाषण' की वृत्तियाँ ही विनाश का कारण बनती हैं। २. (स्वा) = तुझे (आदित्या:) = सब ज्ञानों का आदान करनेवाले और (वसवः) = निवास को उत्तम बनानेवाले पुरुष [माता, पिता व आचार्य] उद (भरन्तु) = जम्भ आदि से ऊपर उठानेवाले हों-तुझे इनका शिकार न होने दें। (इन्द्राग्री) = इन्द्र और अग्नि-जितेन्द्रियता तथा आगे बढ़ने की भावना तुझे (उत्) = कामादि का शिकार होने से बचाएँ, तेरा उद्धार करें। इसप्रकार ये सब (स्वस्तये) = तेरे कल्याण के लिए हों।
भावार्थ -
हम 'काम, क्रोध, अन्धकार [अज्ञान], अतिभुक्ति तथा अतिवोक्ति [बहुत बोलने]' के शिकार न हों। हमें ज्ञानी व हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले माता, पिता, आचार्य काम-क्रोध आदि की वृतियों से ऊपर उठाएँ। हम जितेन्द्रिय व आगे बढ़ने की वृत्तिवाले हों। इसप्रकार हम अपना कल्याण सिद्ध करनेवाले बनें।
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