अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 11
रक्ष॑न्तु त्वा॒ग्नयो॒ ये अ॒प्स्वन्ता रक्ष॑तु त्वा मनु॒ष्या॒ यमि॒न्धते॑। वै॑श्वान॒रो र॑क्षतु जा॒तवे॑दा दि॒व्यस्त्वा॒ मा प्र धा॑ग्वि॒द्युता॑ स॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठरक्ष॑न्तु । त्वा॒ । अ॒ग्नय॑: । ये । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । रक्ष॑तु । त्वा॒ । म॒नुष्या᳡: । यम् । इ॒न्धते॑ । वै॒श्वा॒न॒र: । र॒क्ष॒तु॒ । जा॒तऽवे॑दा: । दि॒व्य: । त्वा॒ । मा । प्र । धा॒क् । वि॒ऽद्युता॑ । स॒ह ॥१.११॥
स्वर रहित मन्त्र
रक्षन्तु त्वाग्नयो ये अप्स्वन्ता रक्षतु त्वा मनुष्या यमिन्धते। वैश्वानरो रक्षतु जातवेदा दिव्यस्त्वा मा प्र धाग्विद्युता सह ॥
स्वर रहित पद पाठरक्षन्तु । त्वा । अग्नय: । ये । अप्ऽसु । अन्त: । रक्षतु । त्वा । मनुष्या: । यम् । इन्धते । वैश्वानर: । रक्षतु । जातऽवेदा: । दिव्य: । त्वा । मा । प्र । धाक् । विऽद्युता । सह ॥१.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 11
विषय - अग्नयः
पदार्थ -
१. (त्वा) = तुझे ये (अग्नयः) = अग्नियाँ (रक्षन्तु) = रक्षित करें, ये (अप्सु अन्त:) = जो प्रजाओं में निवास करती हैं, ये अग्नियाँ 'माता, पिता, आचार्य रूप हैं। 'पिता वै गार्हपत्योऽग्निर्माताऽग्निरीक्षण: स्मृतः । गुरुराहवनीयस्तु साऽग्नित्रेता गरीयसी' मातारूप अग्नि तुझे चरित्रवान्, पितारूप अग्नि शिष्टाचार-सम्पन्न तथा गुरुरूप अग्नि ज्ञानदीप्त जीवनवाला बनाये। वह अग्नि भी (त्वा रक्षतु) = तेरा रक्षण करे, (यम) = जिसे (मनुष्या:) = ननशील पुरुष (इन्धते) = यज्ञवेदी में दीप्त किया करते हैं। यह अग्निहोत्र में दीस अग्नि भी रोगकृमियों के विनाश के द्वारा तेरा रक्षण करे। २. वह (जातवेदा:) = सर्वज्ञ, सर्वव्यापक (वैश्वानर:) = मानवमात्र का हित करनेवाला प्रभु (रक्षतु) = तेरा रक्षण करे। यह (दिव्यः) द्युलोक में होनेवाला सूर्यरूप अग्नि (विद्युता सह) = विद्युत् के साथ त्(वा मा प्रधाक्) = तुझे दग्ध करनेवाला न हो। सूर्य या विद्युत् के कारण किसी प्रकार की आधिदैविक आपत्ति तुझपर न आये।
भावार्थ -
माता,पिता व आचार्यरूप अग्नियों से हमारा जीवन बड़ा सुन्दर बने। नियम से अग्निहोत्र करते हुए हम रोगकृमियों का विनाश करके सुखी व नीरोग हों। प्रभु हमारे रक्षक हों। प्रभु की ये सूर्य या विद्युद्प विभूतियाँ हमारे लिए कल्याणकर हों।
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