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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 15
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - आयुः छन्दः - प्रस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त

    जी॒वेभ्य॑स्त्वा स॒मुदे॑ वा॒युरिन्द्रो॑ धा॒ता द॑धातु सवि॒ता त्राय॑माणः। मा त्वा॑ प्रा॒णो बलं॑ हासी॒दसुं॒ तेऽनु॑ ह्वयामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जी॒वेभ्य॑: । त्वा॒ । स॒म्ऽउदे॑ । वा॒यु: । इन्द्र॑: । धा॒ता । द॒धा॒तु॒ । स॒वि॒ता । त्राय॑माण: । मा । त्वा॒ । प्रा॒ण: । बल॑म् । हा॒सी॒त् । असु॑म् । ते॒ । अनु॑ । ह्व॒या॒म॒सि॒ ॥१.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जीवेभ्यस्त्वा समुदे वायुरिन्द्रो धाता दधातु सविता त्रायमाणः। मा त्वा प्राणो बलं हासीदसुं तेऽनु ह्वयामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जीवेभ्य: । त्वा । सम्ऽउदे । वायु: । इन्द्र: । धाता । दधातु । सविता । त्रायमाण: । मा । त्वा । प्राण: । बलम् । हासीत् । असुम् । ते । अनु । ह्वयामसि ॥१.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 15

    पदार्थ -

    १. (त्वा) = तुझे (जीवेभ्यः) = तेरे पोषणीय पुत्र-भार्या-दासादि जीवों के लिए (समुदे) = आनन्द-युक्त जीवन के निमित्त [स+मुदे] (वायुः) = गति द्वारा सब बुराइयों का हिंसन करनेवाला, (इन्द्रः) = शत्रुओं का विद्रावक, (धाता) = सबका धारक, (सविता) = सर्वोत्पादक व सर्वप्रेरक (त्रायमाण:) = रक्षक प्रभु (दधातु) = धारण करे। तू भी 'वायु' बन-गति के द्वारा बुराइयों का संहार करनेवाला बन । 'इन्द्र' जितेन्द्रिय बन, (धाता) = धारण करनेवाला, (सविता) = निर्माण के कार्यों में प्रवृत्त व (त्रायमाण:) = रक्षक बन। ये बातें ही तेरे जीवन को आनन्दमय बनाएँगी। २. स्वा-तुझे प्राण:-प्राणशक्ति व बलम् बल मा हासीत्-मत छोड़ जाएँ। ते असुम्-तेरे प्राण को अनु हयामसि-अनुकूलता से पुकारते हैं। तेरे प्राण सचमुच सब दोषों का क्षेपण करते हुए 'असु' इस अन्वर्थ नामवाले हों।

    भावार्थ -

    हम 'वाय. इन्द्र. धाता. सविता व त्रायमाण' प्रभ का उपासन करते हुए क्रियाशील जितेन्द्रिय, धारक, निर्माण कार्यों में प्रवृत्त व रक्षक बनें। प्राण व बल हमें न छोड़ जाएँ। हमारे प्राण सब दोषों को दूर करनेवाले हों।

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