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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 3
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - आयुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त

    इ॒ह तेऽसु॑रि॒ह प्रा॒ण इ॒हायु॑रि॒ह ते॒ मनः॑। उत्त्वा॒ निरृ॑त्याः॒ पाशे॑भ्यो॒ दैव्या॑ व॒चा भ॑रामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒ह । ते॒ । असु॑: । इ॒ह । प्रा॒ण: । इ॒ह । आयु॑: । इ॒ह । ते॒ । मन॑: । उत् । त्वा॒ । नि:ऽऋ॑त्या: । पाशे॑भ्य: । दैव्या॑ । वा॒चा । भ॒रा॒म॒सि॒ ॥१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इह तेऽसुरिह प्राण इहायुरिह ते मनः। उत्त्वा निरृत्याः पाशेभ्यो दैव्या वचा भरामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इह । ते । असु: । इह । प्राण: । इह । आयु: । इह । ते । मन: । उत् । त्वा । नि:ऽऋत्या: । पाशेभ्य: । दैव्या । वाचा । भरामसि ॥१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. हे आयुष्काम पुरुष! (इह ते असु:) = यहाँ-इस शरीर में तेरा यह असु' है [अस् क्षेपणे] सब रोगों को परे फेंकनेवाली शक्ति है। (इह प्राण:) = यहाँ तुझे प्राणित करनेवाला यह प्राण है। 'प्राण-अपान-उदान-व्यान व समान' के रूप में यह शरीर के सब व्यवहारों को ठीक से चलानेवाला है। (इह आयुः) = यहाँ तेरा यह जीवन है 'शतायुर्वं पुरुषः' सौ वर्ष के लिए नियत तेरा जीवन है। (इह ते मन:) = यहाँ तेरा यह मन है-यह तेरा मन 'ज्योतिर्षा ज्योति:' ज्योतियों की भी ज्योति है-'येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम्' यह मन भूत, भुवन, भविष्यत् का परिगृहीता व अमृत है। २. इन सबके होते हुए रोगादि सम्भव ही कैसे हो सकते हैं? हम (दैव्या वाचा) = देव के द्वारा दी गई वेदवाणी के द्वारा (त्वा) = तुझे (निर्ऋत्याः पाशेभ्य:) = दुर्गति की बन्धन-रज्जुओं से (उत् भरामसि) = ऊपर उठाते हैं। वेदज्ञान द्वारा 'असु.प्राण,आयु व मन' का ठीक ज्ञान प्राप्त करता हुआ तू दुर्गति के पाशों से नहीं जकड़ा जा सकता।

    भावार्थ -

    हम वेदवाणी के द्वारा शरीरस्थ 'असु,प्राण,आयु व मन' का ठीक ज्ञान प्राप्त करके उनके उचित विनियोग व शक्तिवर्धन से दुर्गति के पाशों में जकड़े जाने से अपने को बचाएँ।

     

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