अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
सूक्त - शुक्रः
देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - उपरिष्टाद्बृहती
सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त
अ॒यं प्र॑तिस॒रो म॒णिर्वी॒रो वी॒राय॑ बध्यते। वी॒र्यवान्त्सपत्न॒हा शूर॑वीरः परि॒पाणः॑ सुम॒ङ्गलः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । प्र॒ति॒ऽस॒र: । म॒णि: । वी॒र: । वी॒राय॑ । ब॒ध्य॒ते॒ । वी॒र्य᳡वान् । स॒प॒त्न॒ऽहा । शूर॑ऽवीर: । प॒रि॒ऽपान॑: । सु॒ऽम॒ङ्गल॑: ॥५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं प्रतिसरो मणिर्वीरो वीराय बध्यते। वीर्यवान्त्सपत्नहा शूरवीरः परिपाणः सुमङ्गलः ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । प्रतिऽसर: । मणि: । वीर: । वीराय । बध्यते । वीर्यवान् । सपत्नऽहा । शूरऽवीर: । परिऽपान: । सुऽमङ्गल: ॥५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
विषय - प्रतिसरो मणिः
पदार्थ -
१. (अयम्) = यह (मणिः) = वीर्यरूप मणि (प्रतिसर:) = [य:कृत्याः करोति तम् प्रतिसरति] हमारा हिंसन करनेवाले रोगों पर आक्रमण करती है। (वीर:) = [विविधम् ईरयति अपसारयति शत्रुम्] रोगों को कम्मित करके दूर करती है। (वीराय बध्यते) = वीरतापूर्ण कार्यों को करने के लिए शरीर में बाँधी जाती है। इस मणि का शरीर में सुरक्षित रखना ही इसे शरीर में बाँधना है। २. इस मणि को शरीर में बाँधनेवाला पुरुष (वीर्यवान्) = शक्तिशाली बनता है। (सपत्नहा) = रोगरूप शत्रुओं को नष्ट करनेवाला होता है। (शूरवीर:) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाला व रोगों को कम्पित करके दूर करनेवाला होता है। इसप्रकार (परिपाण:) = सब ओर से अपना रक्षण करनेवाला व (सुमङ्गलः) = उत्तम मङ्गलवाला होता है।
भावार्थ -
शरीर में सुरक्षित किया गया वीर्य प्रतिसर मणि' है। यह रोगों पर आक्रमण करने वाला है। इसे शरीर में सुरक्षित करनेवाला अपना रक्षण करता है और अपना मङ्गल सिद्ध करता है।
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