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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 6
    सूक्त - शुक्रः देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः छन्दः - उपरिष्टाद्बृहती सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त

    अ॒न्तर्द॑धे॒ द्यावा॑पृथि॒वी उ॒ताह॑रु॒त सूर्य॑म्। ते मे॑ दे॒वाः पु॒रोहि॑ताः प्र॒तीचीः॑ कृ॒त्याः प्र॑तिस॒रैर॑जन्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न्त: । द॒धे॒ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । उ॒त । अह॑: । उ॒त । सूर्य॑म् । ते । मे॒ । दे॒वा: । पु॒र:ऽहि॑ता: । प्र॒तीची॑: । कृ॒त्या: । प्र॒ति॒ऽस॒रै: । अ॒ज॒न्तु॒ ॥५.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्तर्दधे द्यावापृथिवी उताहरुत सूर्यम्। ते मे देवाः पुरोहिताः प्रतीचीः कृत्याः प्रतिसरैरजन्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अन्त: । दधे । द्यावापृथिवी इति । उत । अह: । उत । सूर्यम् । ते । मे । देवा: । पुर:ऽहिता: । प्रतीची: । कृत्या: । प्रतिऽसरै: । अजन्तु ॥५.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 6

    पदार्थ -

    १. वीर्यरक्षण द्वारा मैं (द्यावापृथिवी अन्तः दधे) = धुलोक व पृथिवीलोक को अपने अन्दर सुरक्षित रूप से धारण करता हूँ। मस्तिष्करूप धुलोक को व शरीररूप पृथिवी को अज्ञानान्धकार व रोगों का शिकार नहीं होने देता, (उत) = और (अहः) = दिन को, (उत) = और (सूर्यम्) = सूर्य को मैं अन्दर धारण करता हूँ। 'अहन्' शब्द अ-विनाश का सूचक है-शरीर को मैं रोगों से विनष्ट नहीं होने देता। 'सूर्य' ज्ञान के प्रकाश का प्रतीक है-मैं मस्तिष्क को ज्ञानसूर्य से दीप्त करता हूँ। २.(ते) = वे (देवा:) = दिव्य वृत्तिवाले (पुरोहिता:) = [पू पालनपूरणयो:, पुरः च हिताः च] सबका पालन व पूरण करनेवाले तथा हित में प्रवृत्त व्यक्ति (प्रतीची:) = अपने अभिमुख आनेवाली (कृत्या:) = हिंसाओं को (प्रतिसरैः) = रोगरूप शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाली वीर्यमणियों द्वारा (अजन्तु) = दूर भगा दें।

    भावार्थ -

    सुरक्षित वीर्य 'मस्तिष्क व शरीर' के स्वास्थ्य का साधन बनता है। यह शरीर को रोगों से नष्ट नहीं होने देता तथा मस्तिष्क को ज्ञानदीस बनाता है। वीर्यरक्षक, पुरोहित, देव रोगरूप शत्रुओं को दूर भगा देते हैं।

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