अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 4
सूक्त - शुक्रः
देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - चतुष्पदा भुरिग्जगती
सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त
अ॒यं स्रा॒क्त्यो म॒णिः प्र॑तीव॒र्तः प्र॑तिस॒रः। ओज॑स्वान्विमृ॒धो व॒शी सो अ॒स्मान्पा॑तु स॒र्वतः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । स्रा॒क्त्य: । म॒णि: । प्र॒ति॒ऽव॒र्त: । प्र॒ति॒ऽस॒र: । ओज॑स्वान् । वि॒ऽमृ॒ध: । व॒शी । स: । अ॒स्मान् । पा॒तु॒ । स॒र्वत॑: ॥५.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं स्राक्त्यो मणिः प्रतीवर्तः प्रतिसरः। ओजस्वान्विमृधो वशी सो अस्मान्पातु सर्वतः ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । स्राक्त्य: । मणि: । प्रतिऽवर्त: । प्रतिऽसर: । ओजस्वान् । विऽमृध: । वशी । स: । अस्मान् । पातु । सर्वत: ॥५.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 4
विषय - स्त्राक्त्यः मणिः
पदार्थ -
१. (अयं मणि:) = यह वीर्यरूप मणि (स्त्रावत्यः) [सै पाके, अक् गती, त्य] = तपस्या के द्वारा परिपाक की ओर गति करनेवालों में होनेवाली है। अपने को तपस्या की अग्नि में परिपक्व करनेवाला ही इसका रक्षण कर पाता है, विलासी पुरुष में इसका निवास नहीं होता। (प्रतीवर्तः) = [प्रतिकूल वर्तयति अनेन] शत्रुओं के मुख को मोड़ देनेवाला है। (प्रतिसर:) = यह वीर्य रोगरूप शत्रुओं पर धावा बोलनेवाला है। २. (ओजस्वान्) = यह हमें प्रशस्त ओजवाला बनाता है, (विमृधः) = शत्रुओं का विमर्दन करनेवाला है और (वशी) = सबको अपने वश में करनेवाला है। (स:) = वह मणि (अस्मान्) = हमें (सर्वतः पातु) = सब ओर से रक्षित करे।
भावार्थ -
यह वीर्यरूप मणि अपने को तपस्या की अग्नि में परिपक्व करनेवालों में रहती है। यह प्रतीवर्त व प्रतिसर है। यह हमें ओजस्वी बनाती है व हमारा रक्षण करती है।
इस भाष्य को एडिट करें