अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 9
सूक्त - शुक्रः
देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - चतुष्पदा पुरस्कृतिर्जगती
सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त
याः कृ॒त्या आ॑ङ्गिर॒सीर्याः कृ॒त्या आ॑सु॒रीर्याः कृ॒त्याः स्व॒यंकृ॑ता॒ या उ॑ चा॒न्येभि॒राभृ॑ताः। उ॒भयी॒स्ताः परा॑ यन्तु परा॒वतो॑ नव॒तिं ना॒व्या अति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठया: । कृ॒त्या: । आ॒ङ्गि॒र॒सी: । या: । कृ॒त्या: । आ॒सु॒री: । या:। कृ॒त्या: । स्व॒यम्ऽकृता॑: । या: । ऊं॒ इति॑ । च॒ । अ॒न्येभि॑: । आऽभृ॑ता: । उ॒भयी॑: । ता: । परा॑ । य॒न्तु॒ । प॒रा॒ऽवत॑: । न॒व॒तिम् । ना॒व्या᳡: । अति॑ ॥५.९॥
स्वर रहित मन्त्र
याः कृत्या आङ्गिरसीर्याः कृत्या आसुरीर्याः कृत्याः स्वयंकृता या उ चान्येभिराभृताः। उभयीस्ताः परा यन्तु परावतो नवतिं नाव्या अति ॥
स्वर रहित पद पाठया: । कृत्या: । आङ्गिरसी: । या: । कृत्या: । आसुरी: । या:। कृत्या: । स्वयम्ऽकृता: । या: । ऊं इति । च । अन्येभि: । आऽभृता: । उभयी: । ता: । परा । यन्तु । पराऽवत: । नवतिम् । नाव्या: । अति ॥५.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 9
विषय - 'आङ्गिरसी: आसुरी:' कृत्याः
पदार्थ -
१. (याः कृत्याः) = जो छेदन-भेदन-हिंसा-प्रयोग (आङ्गिरसी:) = अङ्ग-रसों से सम्बद्ध हैं, अर्थात् जिनका घातक प्रभाव "रस-रुधिर' आदि शरीर की धातुओं पर पड़ता है, (याः कृत्या: आसुरी:) = जो हिंसन-क्रियाएँ [असुषु रमन्ते] प्राणों में क्रीड़ा करनेवाली हैं, अर्थात् जिस छेदन भेदन का घातक प्रभाव प्राणशक्ति पर पड़ता है, (याः कृत्या: स्वयंकृता:) = जो छेदन-भेदन की क्रियाएँ स्वयं आत्मदोष से उत्पन्न कर ली जाती हैं, (च उ) = और निश्चय से (याः अन्येभिः आभूता:) = जो छेदन-भेदन की क्रियाएँ हमारे साथ सम्बद्ध अन्य पुरुषों से प्राप्त कराई जाती हैं, (ता:) = वे (उभयी:) = दोनों प्रकार की [स्वयंकृत या अन्याभृत] कृत्याएँ (नाव्याः नवतिम् अति) = नौकाओं से तैरने योग्य नव्वे महानदियों को लाँघकर (परावतः परायन्तु) = दूर देश से भी दूर चली जाएँ हमारे समीप उनका पहुँचना सम्भव ही न रहे। २. जैसे 'सात समुद्र पार' एक काव्यमय शब्द प्रयोग है, उसी प्रकार यहाँ नव्वे महानदियों के पार यह प्रयोग है। ये छेदन-भेदन हमसे दूर ही रहें। हमारे समीप न आ पाएँ। हमारे रस-रुधिर आदि अङ्ग-रसों पर इनका कुप्रभाव न हो, न ही हमारी प्राणशक्ति इन घातक प्रयोगों से प्रभावित हो। हमारे स्वयंकृत खान-पान के दोष इन हिंसाओं का कारण न बनें व अन्यों के साथ सम्पर्क इन हिंसनों को प्राप्त कराने का कारण न बने।
भावार्थ -
न तो हमारे रस-रुधिर आदि अङ्ग-रस और न ही हमारे प्राण छेदन-भेदन को प्राप्त हों। न हमारे निजू दोषों से और न ही सम्बन्धित पुरुषों के दोषों से हमें छेदन-भेदन प्राप्त हो।
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