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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 15
    सूक्त - शुक्रः देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः छन्दः - पुरस्ताद्बृहती सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त

    यस्त्वा॑ कृ॒त्याभि॒र्यस्त्वा॑ दी॒क्षाभि॑र्य॒ज्ञैर्यस्त्वा॒ जिघां॑सति। प्र॒त्यक्त्वमि॑न्द्र॒ तं ज॑हि॒ वज्रे॑ण श॒तप॑र्वणा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । त्वा॒ । कृ॒त्याभि॑: । य: । त्वा॒ । दी॒क्षाभि॑: । य॒ज्ञै: । य: । त्वा॒ । ज‍िघां॑सति । प्र॒त्यक् । त्वम् । इ॒न्द्र॒ । तम् । ज॒हि॒ । वज्रे॑ण । श॒तऽप॑र्वणा ॥५.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्त्वा कृत्याभिर्यस्त्वा दीक्षाभिर्यज्ञैर्यस्त्वा जिघांसति। प्रत्यक्त्वमिन्द्र तं जहि वज्रेण शतपर्वणा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । त्वा । कृत्याभि: । य: । त्वा । दीक्षाभि: । यज्ञै: । य: । त्वा । ज‍िघांसति । प्रत्यक् । त्वम् । इन्द्र । तम् । जहि । वज्रेण । शतऽपर्वणा ॥५.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 15

    पदार्थ -

    १. (यः) = जो (त्वा) = तुझे (कत्याभिः) = छेदन-भेदन की क्रियाओं से (जिघांसति) = जीतने की कामना करता है, (यः) = जो (त्वा) = तुझे (दीक्षाभि:) = व्रतों द्वारा [वाग्यमन 'मौन' आदि नियमविशेषों से] जीतना चाहता है, (यः त्वा) = जो तुझे (यज्ञैः) = यज्ञों के द्वारा जीतने की कामना करता है, हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (त्वम्) = तू (तं प्रत्यक्) = उसके अभिमुख (शतपर्वणा) = शतवर्षपर्यन्त तेरा पूरण करनेवाले (वज्रेण) = इस वीर्यमणिरूप वज्र के द्वारा (जहि) = जानेवाला हो [हन् गतौ]। २. यह वीर्यमणिरूप वन जहाँ तुझे छेदन-भेदन का शिकार न होने देगा, वहाँ तू इसके द्वारा 'दीक्षा व यज्ञों' में किसी से पराजित नहीं होगा। इस मणि-रक्षा से तेरा जीवन भी दीक्षामय व यज्ञमय बन जाएगा।

    भावार्थ -

    वीर्यमणिरूप वन हमारा शतवर्षपर्यन्त पूरण करनेवाला होता है। यह हमारे जीवन को दीक्षामय व यज्ञमय बनाता है।

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