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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 14
    सूक्त - शुक्रः देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा जगती सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त

    क॒श्यप॒स्त्वाम॑सृजत क॒श्यप॑स्त्वा॒ समै॑रयत्। अबि॑भ॒स्त्वेन्द्रो॒ मानु॑षे॒ बिभ्र॑त्संश्रेषि॒णेज॑यत्। म॒णिं स॒हस्र॑वीर्यं॒ वर्म॑ दे॒वा अ॑कृण्वत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क॒श्यप॑: । त्वाम् । अ॒सृ॒ज॒त॒ । क॒श्यप॑: । त्वा॒ । सम् । ऐ॒र॒य॒त् । अबि॑भ: । त्वा॒। इन्द्र॑: । मानु॑षे । बिभ्र॑त् । स॒म्ऽश्रे॒षि॒णे । अ॒ज॒य॒त् । म॒णिम् । स॒हस्र॑ऽवीर्यम् । वर्म । दे॒वा: । अ॒कृ॒ण्व॒त॒ ॥५.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कश्यपस्त्वामसृजत कश्यपस्त्वा समैरयत्। अबिभस्त्वेन्द्रो मानुषे बिभ्रत्संश्रेषिणेजयत्। मणिं सहस्रवीर्यं वर्म देवा अकृण्वत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कश्यप: । त्वाम् । असृजत । कश्यप: । त्वा । सम् । ऐरयत् । अबिभ: । त्वा। इन्द्र: । मानुषे । बिभ्रत् । सम्ऽश्रेषिणे । अजयत् । मणिम् । सहस्रऽवीर्यम् । वर्म । देवा: । अकृण्वत ॥५.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 14

    पदार्थ -

    १. हे वीर्यमणे! (कश्यपः) = सर्वद्रष्टा प्रजापति ने (त्वाम् असृजत्) = तुझे उत्पन्न किया है। (कश्यपः) = वह सर्वद्रष्टा प्रजापति ही (त्वा समैरयत्) = तुझे सर्वोपकार के लिए सम्यक प्रेरित करता है। (त्वा)= तुझे (इन्द्रः अबिभः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष अपने में धारण करता है। (मानुषे) = [मानुषेषु मध्ये-सा०] मनुष्यों में जो भी पुरुष तुझे (बिभत्) = धारण करता है, वह (संप्रेषिणे) = परस्पर संश्लेषण के स्थानभूत संग्राम में (अजयत्) = विजयी होता है। २. इसप्रकार इस स्त्राक्त्य मणि के महत्त्व को समझते हुए (देवा:) = ज्ञानी पुरुष (सहस्त्रवीर्यम् मणिम्) = इस अनन्त शक्तिशाली मणि को (वर्म अकृण्वत) = अपना कवच बनाते हैं। इस कवच से सुरक्षित हुए-हुए वे रोगादि से आक्रान्त नहीं होते।

    भावार्थ -

    प्रभु ने इस वीर्यमणि को जन्म दिया है, प्रभु ने सर्वोपकार के लिए इसे हममें स्थापित किया है। जितेन्द्रिय पुरुष इसे धारण करता है। इसका धारक संग्राम में विजयी बनता है। यह 'सहलवीर्य मणि' देवों का कवच है।

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