अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 20
सूक्त - शुक्रः
देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - विराड्गर्भास्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त
आ मा॑रुक्षद्देवम॒णिर्म॒ह्या अ॑रि॒ष्टता॑तये। इ॒मं मे॒थिम॑भि॒संवि॑शध्वं तनू॒पानं॑ त्रि॒वरू॑थ॒मोज॑से ॥
स्वर सहित पद पाठआ । मा॒ । अ॒रु॒क्ष॒त् । दे॒व॒ऽम॒णि: । म॒ह्यै । अ॒रि॒ष्टऽता॑तये । इ॒मम् । मे॒थिम् । अ॒भि॒ऽसंवि॑शध्वम् । त॒नू॒ऽपान॑म् । त्रि॒ऽवरू॑थम् । ओज॑से ॥५.२०॥
स्वर रहित मन्त्र
आ मारुक्षद्देवमणिर्मह्या अरिष्टतातये। इमं मेथिमभिसंविशध्वं तनूपानं त्रिवरूथमोजसे ॥
स्वर रहित पद पाठआ । मा । अरुक्षत् । देवऽमणि: । मह्यै । अरिष्टऽतातये । इमम् । मेथिम् । अभिऽसंविशध्वम् । तनूऽपानम् । त्रिऽवरूथम् । ओजसे ॥५.२०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 20
विषय - देवमणिः
पदार्थ -
१. (देवमणिः) = प्रभु द्वारा शरीर में स्थापित की गई यह वीर्यरूपमणि (मा आरुक्षत्) = मेरे शरीर में सर्वत: आरोहणवाली होती है। शरीर में मैं इसकी ऊर्ध्व गति करनेवाला बनता हूँ। यह (मही) = [महत्यै] महती (अरिष्टतातये) = अहिंसा के लिए होती है। यह सब हिंसनों को दूर करके क्षेम [कल्याण] का साधन बनती है। २. (इमम्) = इस (मेथिम्) = शत्रुओं का विलोडन करनेवाली रोगादि का विनाश करनेवाली देवमणि को (अभिसंविशध्वम्) = अभितः सम्यक् संभालकर रखनेवाले बनो। शरीर में यह तुम्हें नीरोग बनाये और मस्तिष्क में ज्ञानदीस । इस मणि का तुम आश्रय करो जोकि (तनूपानम्) = शरीर का रक्षण करनेवाली है, (त्रिवरूथम्) = त्रिविध आवरण से युक्त है-शरीर को रोगों से बचाती है, मन को वासनाओं से आक्रान्त नहीं होने देती तथा बुद्धि को लोभ से उपहत नहीं होने देती। यह मणि (ओजसे) = हमारे ओज के लिए होती है-हमें ओजस्वी बनाती है।
भावार्थ -
शरीर में वीर्य की ऊर्ध्व गति होने पर यह हमारे अहिंसन का कारण बनता है। शत्रुओं का विध्वंस करके यह 'शरीर,मन व बुद्धि' का रक्षक आवरण बनता है। हमें ओजस्वी बनाकर शरीर-रक्षण के योग्य बनाता है।
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