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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 2
    सूक्त - शुक्रः देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः छन्दः - त्रिपदा विराड्गायत्री सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त

    अ॒यं म॒णिः स॑पत्न॒हा सु॒वीरः॒ सह॑स्वान्वा॒जी सह॑मान उ॒ग्रः। प्र॒त्यक्कृ॒त्या दू॒षय॑न्नेति वी॒रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । म॒णि: । स॒प॒त्न॒ऽहा । सु॒ऽवीर॑: । सह॑स्वान् । वा॒जी । सह॑मान: । उ॒ग्र: । प्र॒त्यक् । कृ॒त्या: । दूषय॑न् । ए॒ति॒ । वी॒र: ॥५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं मणिः सपत्नहा सुवीरः सहस्वान्वाजी सहमान उग्रः। प्रत्यक्कृत्या दूषयन्नेति वीरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । मणि: । सपत्नऽहा । सुऽवीर: । सहस्वान् । वाजी । सहमान: । उग्र: । प्रत्यक् । कृत्या: । दूषयन् । एति । वीर: ॥५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. (अयम्) = यह (मणि:) = वीर्यरूप मणि (सपत्नहा) = शरीरस्थ रोगरूप शत्रुओं को नष्ट करनेवाला है। (सुवीर:) = रोगरूप शत्रुओं को कम्पित करनेवाला वीर है, (सहस्वान्) = बलवान् है। यह मणि (वाजी) = अत्यधिक शक्ति देनेवाली, (सहमान:) = शत्रुओं को कुचलनेवाली व (उग्रः) = उद्गुर्ण बलवाली है। २. यह (वीरः) = शत्रुओं को कम्पित करनेवाली मणि (प्रत्यक्) = हमारे अन्दर (कृत्या:) = छेदन-भेदन को (दूषयन्) = दूषित करती हुई-रोगों द्वारा उत्पन्न होनेवाली सब प्रकार की हिंसाओं को विनष्ट करती हुई एति-प्राप्त होती है।

    भावार्थ -

    शरीर में सुरक्षित वीर्यरूपी मणि रोगों का पराभव करती है। शरीर में रोग-जनित सब छेदन-भेदन को दूर करती है।


     

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