अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 3
सूक्त - शुक्रः
देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - चतुष्पदा भुरिग्जगती
सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त
अ॒नेनेन्द्रो॑ म॒णिना॑ वृ॒त्रम॑हन्न॒नेनासु॑रा॒न्परा॑भावयन्मनी॒षी। अ॒नेना॑जय॒द्द्यावा॑पृथि॒वी उ॒भे इ॒मे अ॒नेना॑जयत्प्र॒दिश॒श्चत॑स्रः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒नेन॑ । इन्द्र॑: । म॒णिना॑ । वृ॒त्रम् । अ॒ह॒न् । अ॒नेन॑ । असु॑रान् । परा॑ । अ॒भा॒व॒य॒त् । म॒नी॒षी । अ॒नेन॑ । अ॒ज॒य॒त् । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । उ॒भे इति॑ । इ॒मे इति॑ । अ॒नेन॑ । अ॒ज॒य॒त् । प्र॒ऽदिश॑: । चत॑स्र: ॥५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अनेनेन्द्रो मणिना वृत्रमहन्ननेनासुरान्पराभावयन्मनीषी। अनेनाजयद्द्यावापृथिवी उभे इमे अनेनाजयत्प्रदिशश्चतस्रः ॥
स्वर रहित पद पाठअनेन । इन्द्र: । मणिना । वृत्रम् । अहन् । अनेन । असुरान् । परा । अभावयत् । मनीषी । अनेन । अजयत् । द्यावापृथिवी इति । उभे इति । इमे इति । अनेन । अजयत् । प्रऽदिश: । चतस्र: ॥५.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
विषय - वृत्र-विनाश व असुर पराभव
पदार्थ -
१. (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (अनेन मणिना) = इस वीर्यरूप मणि के द्वारा (वृत्रम् अहन्) = ज्ञान पर आ जानेवाले 'काम' रूप आवरण को नष्ट करता है। सुरक्षित वीर्य ज्ञानाग्नि का इंधन बनता है और दीस ज्ञानाग्नि से काम का दहन होता है। (मनीषी) = वीर्यरक्षण द्वारा सूक्ष्म बुद्धि को प्राप्त मनुष्य (अनेन) = इस वीर्यरूप मणि के द्वारा ही (असुरान्) = सब आसुरवृत्तियों को (परा अभावयत्) = सुदूर पराभूत करनेवाला होता है। २. (अनेन) = इसके द्वारा ही (इमे उभे द्यावापृथिवी) = इन दोनों द्यावापृथिवी को मस्तिष्करूप द्युलोक व शरीररूप पृथिवी को (अजयत्) = जीतता है, मस्तिष्क को ज्ञानदीप्त बनाता है तो शरीर को सशक्त करता है। (अनेन) = इस वीर्यरूप मणि के द्वारा (चतस्त्रः प्रदिश:) = चारों दिशाओं और उपदिशाओं को अजयत्-जीतनेवाला होता है। सब दिशाओं में इस वीर्यवान् पुरुष की शोभा होती है।
भावार्थ -
जितेन्द्रिय पुरुष वीर्यरक्षण द्वारा ज्ञानाग्नि को दीप्त करके उससे काम का विध्वंस करता है, सब आसुरीभावों को पराभूत करता है, मस्तिष्क को ज्ञानदीस व शरीर को सशक्त बनाता है और सब दिशाओं में शोभावाला होता है।
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