अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 16
सूक्त - शुक्रः
देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - चतुष्पदा भुरिग्जगती
सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त
अ॒यमिद्वै प्र॑तीव॒र्त ओज॑स्वान्संज॒यो म॒णिः। प्र॒जां धनं॑ च रक्षतु परि॒पाणः॑ सुम॒ङ्गलः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । इत् । वै । प्र॒ति॒ऽव॒र्त: । ओज॑स्वान् । स॒म्ऽज॒य: । म॒णि: । प्र॒ऽजाम् । धन॑म् । च॒ । र॒क्ष॒तु॒ । प॒रि॒ऽपान॑: । सु॒ऽम॒ङ्गल॑: ॥५.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
अयमिद्वै प्रतीवर्त ओजस्वान्संजयो मणिः। प्रजां धनं च रक्षतु परिपाणः सुमङ्गलः ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । इत् । वै । प्रतिऽवर्त: । ओजस्वान् । सम्ऽजय: । मणि: । प्रऽजाम् । धनम् । च । रक्षतु । परिऽपान: । सुऽमङ्गल: ॥५.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 16
विषय - परिपाणः, सुमङ्गल:
पदार्थ -
१. (अयं मणि:) = यह वीर्यरूपमणि (इत् वै) = निश्चय से (प्रतीवर्त:) = कृत्याओं के पराङ्मुख करने का साधन है। यह हमें रोगादि जनित छेदन-भेदन से बचानेवाली है। (ओजस्वान्) = यह हमें ओजस्वी बनाती है और (सञ्जयः) = सम्यक् विजयी करती है। २. शरीर में सुरक्षित यह वीर्यमणि (प्रजा धनं च) = प्रजा और धन की (रक्षतु) = रक्षा करे, अर्थात् हमें उत्तम प्रजावाला और उत्तम साधनों से धन कमाने योग्य बनाए। यह (परिपाण:) = सब प्रकार से हमारी रक्षक है और (सुमङ्गल:) = उत्तम कल्याण करनेवाली है।
भावार्थ -
शरीर में सुरक्षित वीर्य सब छेदन-भेदन को दूर रखनेवाला है। यह हमें ओजस्वी बनाकर विजयी बनाता है, उत्तम प्रजा व उत्तम धनवाला बनाता है। यह हमारा रक्षण व मङ्गल करनेवाला है।
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