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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 10
    सूक्त - शुक्रः देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त

    अ॒स्मै म॒णिं वर्म॑ बध्नन्तु दे॒वा इन्द्रो॒ विष्णुः॑ सवि॒ता रु॒द्रो अ॒ग्निः। प्र॒जाप॑तिः परमे॒ष्ठी वि॒राड्वै॑श्वान॒र ऋष॑यश्च॒ सर्वे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्मै । म॒णिम् । वर्म॑ । ब॒ध्न॒न्तु॒ । दे॒वा: । इन्द्र॑: । विष्णु॑: । स॒वि॒ता । रु॒द्र: । अ॒ग्नि: । प्र॒जाऽप॑ति: । प॒र॒मे॒ऽस्थी । वि॒ऽराट् । वै॒श्वा॒न॒र: । ऋष॑य: । च॒ । सर्वे॑ । ५.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मै मणिं वर्म बध्नन्तु देवा इन्द्रो विष्णुः सविता रुद्रो अग्निः। प्रजापतिः परमेष्ठी विराड्वैश्वानर ऋषयश्च सर्वे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मै । मणिम् । वर्म । बध्नन्तु । देवा: । इन्द्र: । विष्णु: । सविता । रुद्र: । अग्नि: । प्रजाऽपति: । परमेऽस्थी । विऽराट् । वैश्वानर: । ऋषय: । च । सर्वे । ५.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 10

    पदार्थ -

    १, (अस्मै) = इस साधक के लिए (देवा:) = सब दिव्यवृत्तियाँ (मणिम्) = वीर्यरूप मणि को (वर्म बध्नन्तु) = कवच के रूप में बाँधै। दिव्यवृत्तियों होने पर शरीर में वीर्यमणि सुरक्षित रहती है। यह रोगादि से बचानेवाले कवच की भौति काम करती है। इन दिव्यवृत्तियों का ही परिणाम 'इन्द्रः, विष्णुः, सविता, रुद्रः, अग्निः, प्रजापतिः, परमेष्ठी, विराट् और वैश्वानरः' शब्दों से अभिव्यक्त हुआ है। ये सब नाम प्रभु के हैं। इन नामों से प्रभु का स्मरण करता हुआ यह साधक (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय, (विष्णुः) = [विष् व्याप्ती] व्यापक-उदारवृत्तिवाला, (सविता) = निर्माण कार्यों में प्रवृत्त, (रुद्रः) = रोगों को दूर भगानेवाला, (अग्नि:) = अग्नणी-अपने को आगे-और-आगे ले-चलनेवाला, (प्रजापति:) = प्रजा के रक्षण में तत्पर, (परमेष्ठी) = परम स्थान में स्थित-तम व रज से ऊपर उठकर सत्त्वगुण में स्थित, (विराट्) = विशिष्ट दीप्सिवाला व (वैश्वानरः) = सब मनुष्यों के हित में प्रवृत्त होता है। ये सब दिव्यवृत्तियाँ शरीर में वीर्यरूप मणि को कवचरूप में बाँधनेवाली बनती हैं। २. (च) = और (सर्वे ऋषयः) = सब ऋषि भी इस साधक के लिए इस वीर्यमणि को कवचरूप में बाँधनेवाले हों। 'ऋषि' तत्त्वद्रष्टा पुरुष हैं। ये उत्कृष्ट ज्ञान प्राप्त कराते हुए वृत्तियों के सुन्दर निर्माण के द्वारा वीर्य का रक्षण करानेवाले होते हैं।

    भावार्थ -

    हम दिव्य वृत्तियोंवाले व उत्कृष्ट ज्ञान प्राप्त करनेवाले बनकर वीर्यरूप मणि को शरीर में कवच के रूप में धारण करें। ये कवच हमें रोगों व वासनारूप शत्रुओं के आक्रमण से बचाएगा।

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