अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 16
सूक्त - मातृनामा
देवता - मातृनामा अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - गर्भदोषनिवारण सूक्त
प॑र्यस्ता॒क्षा अप्र॑चङ्कशा अस्त्रै॒णाः स॑न्तु॒ पण्ड॑गाः। अव॑ भेषज पादय॒ य इ॒मां सं॒विवृ॑त्स॒त्यप॑तिः स्वप॒तिं स्त्रिय॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठप॒र्य॒स्त॒ऽअ॒क्षा: । अप्र॑ऽचङ्कशा: । अ॒स्त्रै॒णा: । स॒न्तु॒ । पण्ड॑गा: । अव॑ । भे॒ष॒ज॒ । पा॒द॒य॒ । य: । इ॒माम् । स॒म्ऽविवृ॑त्सति । अप॑ति: । स्व॒प॒तिम् । स्त्रिय॑म् ॥६.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
पर्यस्ताक्षा अप्रचङ्कशा अस्त्रैणाः सन्तु पण्डगाः। अव भेषज पादय य इमां संविवृत्सत्यपतिः स्वपतिं स्त्रियम् ॥
स्वर रहित पद पाठपर्यस्तऽअक्षा: । अप्रऽचङ्कशा: । अस्त्रैणा: । सन्तु । पण्डगा: । अव । भेषज । पादय । य: । इमाम् । सम्ऽविवृत्सति । अपति: । स्वपतिम् । स्त्रियम् ॥६.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 16
विषय - अस्त्रैणा: [सन्तु]
पदार्थ -
१. (पर्यस्ताक्षा:) = जिनकी आँखे फिरी हुई हैं-टेढ़ी आँखवाले, (अप्रचङ्कशा:) = बिल्कुल लंगड़े-लूले (पण्डगा:) = नंपुसक लोग (अस्त्रैणा: सन्तु) = स्त्रियों से रहित हों-इन्हें विवाह का अधिकार न हो। २. हे (भेषज) = चिकित्सक राजवैद्य ! (यः) = जो (इमाम्) = इस (स्वपति स्त्रियम्) = अपने पति के साथ होनेवाली स्त्री को (अपतिः) = किसी का पति न होता हुआ (संविवृत्सति) = प्राप्त करने की इच्छा करता है, उस पुरुष को (अवपादय) = राष्ट्र से दूर कर। जो विवाहित न होकर अन्य स्त्रियों में वर्तना चाहते हैं, उन्हें राष्ट्र से दूर करना ही ठीक है।
भावार्थ -
'पर्यस्ताक्ष, अप्रचश, पण्डग' लोग विवाह के अयोग्य हैं। जो गृहस्थ न बनकर पर-दाराओं में प्रवृत्त होते हैं, उन्हें राष्ट्र से निष्कासित करना ही ठीक है।
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