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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 21
    सूक्त - मातृनामा देवता - मातृनामा अथवा मन्त्रोक्ताः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - गर्भदोषनिवारण सूक्त

    पवीन॒सात्त॑ङ्ग॒ल्वा॒ च्छाय॑कादु॒त नग्न॑कात्। प्र॒जायै॒ पत्ये॑ त्वा पि॒ङ्गः परि॑ पातु किमी॒दिनः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒वि॒ऽन॒सात् । त॒ङ्ग॒ल्वा᳡त् । छाय॑कात् । उ॒त । नग्न॑कात् । प्र॒ऽजायै॑ । पत्ये॑ । त्वा॒ । पि॒ङ्ग: । परि॑ । पा॒तु॒ । कि॒मी॒दिन॑: ॥६.२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पवीनसात्तङ्गल्वा च्छायकादुत नग्नकात्। प्रजायै पत्ये त्वा पिङ्गः परि पातु किमीदिनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पविऽनसात् । तङ्गल्वात् । छायकात् । उत । नग्नकात् । प्रऽजायै । पत्ये । त्वा । पिङ्ग: । परि । पातु । किमीदिन: ॥६.२१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 21

    पदार्थ -

    १. (पवीनसात्) = वतुल्य नासिकावाले (तङ्गल्वात्) = बड़े गालवाले, (छायकात्) = मुख से काटनेवाले [छो छेदने] (उत) = और (नग्नकात्) = नंगे-बालों से रहित, (किमीदिन:) = हर समय भूखे [किम् इदानीं अदानि] इस रोगकृमि से (त्वा) = तुझे (प्रजायै) = उत्तम सन्तान की प्राप्ति के लिए तथा (पत्ये) = पति की अनुकूलता के लिए (पिङ्ग:) = पिंग वर्णवाला सर्षप (परिपातु) = रक्षित करे।

    भावार्थ -

    पिंग वर्णवाले सर्षप के प्रयोग से रोगकृमियों के संहार के द्वारा गर्भिणी इसप्रकार स्वस्थ हो कि सन्तान भी उत्तम हो और पति की अनुकूलता भी बनी रहे। अस्वस्थ पत्नी से पति की परेशानी बढ़ती है।

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